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श्री लोंकाशाह मत-समर्थन
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११. साधुओं की पगचंपी करे
इस प्रकार सभी कार्य पांचों इन्द्रियों के विषय पोषक हैं, यदि ऐसे कार्यों के लिए भी ग्रन्थों में विधान नहीं हो तो इच्छा पूर्ण किस प्रकार हो सके ? धर्म की ओट में सब चल सकता है, नहीं तो व्यापारी समाज अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे को कभी भी ऐसे नुकसानकारी कार्य में खर्च नहीं करे, वणिक लोगों से जाति या धर्म । के नाम से ही इच्छित खर्च करवाया जा सकता है। ऐसे ही कार्यों में यह समाज उदार है।
बन्धुओ! आप केवल विजयानंदजी के उक्त अवतरण देख कर यह नहीं समझें कि - इनके सिवाय और किसी मूर्तिपूजक आचार्य ने ऐसा कथन नहीं किया होगा, यदि अन्य आचार्यों के उल्लेखों का उद्धरण भी दिया जाय तो व्यर्थ में निबंध का कलेवर अधिक बड़ा हो जाय, इसलिए इस प्रकार के अन्य अवतरण नहीं देकर आपको चौंका देने वाले दो चार अवतरण अन्य आचार्यों के भी देता हूँ। देखिये - - १२. श्री जिनदत्त सूरिजी 'विवेक विलास' (आवृत्ति ५) में लिखते हैं कि -
“छे रसमां आधार स्वरूप उष्णक्रांतिप्रद, कफ, कृमि, दुर्गन्ध, अने वायु नो नाश करनार, मुख ने शोभा अर्पनार एवा तांबूल ने जे माणसो खाय छे तेना घरने श्री कृष्णना घरनी पेटे लक्ष्मी छोड़ती नथी।
__ (पृष्ठ ३६) १३. अब जरा सावधान होकर स्त्री वशीकरण सम्बन्धी जैनाचार्य का बताया हुआ प्रयोग भी देखिये -
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