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क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है ?
(१०) श्रीसंघ की भक्ति में
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'सुगन्धित फूल भक्ति से नारियलादि विविध तांबूल प्रदान रूप भक्ति करे ।
( पृ० ४७४ ) सुज्ञ बन्धुओ ! देखा, मूर्ति पूजक आचार्य श्री विजयानंद जी के धार्मिक प्रवचन धर्म ग्रन्थ के धार्मिक विधान का नमूना ? क्या ऐसा उल्लेख जैन साधु कर सकते हैं? क्या इसमें से एक बात भी किसी जैनागम से प्रमाणित हो सकती है? नहीं कदापि नहीं ।
फल, फूल, पत्रादि तोड़े, कदली गृह बनावें, स्नान करे, मैथुन सेवन कर स्नान करे, गाड़े, घोड़े, सैनिक, शस्त्र, डेरा, तम्बू, चरू, कड़ाही आदि साथ ले, गीत, नृत्य, वाजिंत्रादि करे, फवारे छोड़े, तांबूल प्रदान करे आदि आदि बातों में किस धर्म की प्ररूपणा हुई ? इसमें कौनसा आत्महित है ? ऐसा प्रत्यक्ष आस्रव वर्द्धक कथन जैन मुनि तो कदापि नहीं कर सकता। मेरे विचार से उक्त कथन केवल इन्द्रियों के विषय पोषण रूप स्वार्थ से प्रेरित होकर ही किया गया है, सुगन्धित पुष्पों से घ्राणेन्द्रिय के विषय का पोषण होता है और इसीलिए अरुचिकर खट्टी गंध वाले, सड़े बिगड़े ऐसे फूलों का बहिष्कार किया गया है, श्रवणेन्द्रिय के विषय का पोषण करने के लिए वाजिंत्र युक्त, गान, तान पर्याप्त है, नेत्रों का विषय पोषण, सुन्दर अंगी, पत्र भंगी, दीप राशि मनोहर सजाई, यंत्र से जल का विचित्र प्रकार से छोड़ना और नृत्य आदि से हो ही जाता है, रसनेन्द्रिय के विषय पोषण के लिए तो चरू कढ़ाई आदि की सूचना हो ही गई है, इसी से सदोष आहार भी उपादेय माना जा रहा है और भक्तों को तांबूल प्रदान करने का संकेत भी कुछ थोड़ा महत्त्व नहीं रखता, शारीरिक सुखों की पूर्ति की तो बात ही निराली है, इसीलिए तो 'जैन तत्त्वादर्श' पृ० ४६२ में यह भी लिख दिया गया है कि -
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