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बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है ?
'अनेक तरह के भाष्य, टीका दीपिका रचकर अर्थों की गड़बड़ कर दीनी सो अबताइ करते ही चले जाते हैं । '
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यद्यपि उक्त कथन वेदानुयाइयों पर है, तथापि इस घृणित कार्य से स्वयं जैन तत्त्वादर्श के कर्त्ता और इनके अन्य मूर्तिपूजक टीकाकार भी वंचित नहीं रहे हैं, ग्रन्थकारों ने भी अपने मन्तव्य के नूतन नियम आगम याने जिनवाणी के एकदम विपरीत घड़ डाले है, सर्व प्रथम मूर्ति पूजक समाज के उक्त विजयानन्द सूरि के जैन तत्त्वादर्श के ही कुछ अवतरण पाठकों की जानकारी के लिए देता हूं, देखिये -
रखना..........।
(१) पत्र, वेल, फूल, प्रमुख की रचना करनी शतपत्र, सहस्रपत्र, जाई, केतकी, चम्पकादि विशेष फूलों करी माला, मुकुट, सेहरा, फूलधरादिक की रचना करे, तथा जिनजी के हाथ में बिजोरा, नारियल, सोपारी, नागवल्ली, मोहोर, रुपैया, लड्डु प्रमुख ( पृ० ४०५) (२) प्रथम तो उष्ण प्रासुक जल से स्नान करे, जेकर उष्ण जल न मिले तब वस्त्र से छान करके प्रमाण संयुक्त शीतल जल से स्नान करें । ( पृ० ३६९) (३) मैथुन सेवके तथा वमन करके इन दोनों में कछुक देर पीछे स्नान करे । ( पृ० ४०० ) (४) देव पूजा के वास्ते गृहस्थ को स्नान करना कहा है, तथा शरीर के चैतन्य सुख के वास्ते भी स्नान है। ( पृ० ४०० ) (५) सूखे हुए फूलों से पूजा न करे, तथा जो फूल धरती में गिरा होवे तथा जिसकी पांखड़ी सड़ गई होवे, नीच लोगों का जिसको स्पर्श हुआ होवे, जो शुभ न होवे, जो विकसे हुए न होवे... रात
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