________________
श्री लोकाशाह मत - समर्थन
११
हम मूल सूत्र के सिवाय टीका नियुक्ति आदि को भी मानते हैं, किन्तु वे होने चाहिये मूलाशय युक्त, मूल के बिना या मूल के विपरीत मान्य नहीं हो सकते। वर्तमान में ऐसी पूर्ण अबाधक टीका निर्युक्ति नहीं है। अभी जितनी टीकाएं या निर्युक्ति आदि हैं उनमें कहीं-कहीं तो सर्वथा बिना मूल के ही और कहीं मूल के विपरीत भी प्रयास हुआ पाया जाता है, ऐसी हालत में वर्तमान की टीका निर्युक्ति आदि साहित्य पूर्ण रूप से मान्य नहीं है । हां उचित और अबाधक अंश के लिये हमारा विरोध नहीं है। वर्तमान की टीकाएं प्राचीन नहीं, किन्तु अर्वाचीन हैं । इस विषय में स्वयं विजयानन्दजी सूरि भी जैन तत्त्वादर्श पृ० ३१२ पर लिखते हैं कि -
'सर्व शास्त्रों की टीका लिखी थी। वो सर्व विच्छेद हो गई '
इसी प्रकार प्राचीन टीका का विच्छेद होना स्वयं टीकाकार भी स्वीकार करते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि इस समय जितनी टीकाएं उपलब्ध हैं वे सभी प्राचीन नहीं किन्तु अर्वाचीन हैं, इसके सिवाय वर्तमान टीकाकार भी प्रायः चैत्यवादी और चैत्यवासी परम्परा के ही थे। तथा टीकाओं में टीकाकार का स्वतन्त्र मंतव्य भी तो होता है। बस चैत्यवाद प्रधान समय में होने से इन टीकाओं में अपने समय के इष्ट भावों का आ जाना कोई बड़ी बात नहीं है। कितने ही महाशय ऐसे भी होते हैं जो अपने मंतव्य को जनता से मान्य करवाने के हेतु उसे सर्वमान्य साहित्य में मिला देते हैं, इस प्रकार भी जैन साहित्य में बिगाड़ हुआ है । क्योंकि स्वार्थ परता मनुष्य से चाहे सो करा सकती है । भाष्य, वृत्ति, निर्युक्ति आदि में स्वार्थपरता ने भी अपना रंग जमाया है। हमारी इस बात को तो श्री विजयानन्दसूरि भी जैन तत्त्वादर्श हिन्दी के पृ० ३५ में लिखते हैं कि -
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org