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________________ - श्री लोंकाशाह मत-समर्थन ११७ ***************************************** __ अपराधी के अपराध का दण्ड देने में भी पर हित सार्वजनिक शान्ति की भावना रही हुई है। यदि अपराधी को उचित दण्ड नहीं दिया जाय तो भविष्य में वह अधिक अपराध कर जन साधारण को कष्टदाता होगा। दूसरा अन्य लोग भी जब यह नहीं जानेंगे कि अपराधों का दण्ड नहीं मिलता, तो अधिक उत्पात या अनर्थ करने लगें ऐसी सम्भावना है। अतएव परहित दृष्टि से नियमानुसार दण्ड देना भी आवश्यक है। . न्यायाधीश और खूनी का उदाहरण मूर्ति-पूजा की सिद्धि में नहीं किन्तु विरोध में उपयुक्त है, क्योंकि न्यायाधीश का उदाहरण तो अपराधी को सप्रमाण दण्ड देने का सिद्ध करता है। और हमारे मूर्ति पूजक भाई ईश्वर भक्ति के नाम से स्वेच्छानुसार निरपराध जीवों की हत्या करते हैं। क्या हमारे भाई यह बता सकेंगे कि वे पानी, पुष्प, फल, अग्नि आदि के जीवों को किस अपराध पर प्राण दण्ड देते हैं? उन्हें दण्ड देने का अधिकार कब और किससे प्राप्त हुआ है? वे किस धर्मशास्त्रानुसार उनके प्राण लूटते हैं? यह तो मामला ही उल्टा है, न्यायाधीश का उदाहरण अपराधी को अपराध का दण्ड देना बताता है, और आप करते हैं निरपराधों के प्राणों का संहार! कोई आततायी मार्ग चलते किसी निर्बल की हत्या करके पकड़े जाने पर कहे कि मैंने तो उसे अपराध का दण्ड दिया है। तब जिस प्रकार उसका यह झूठा कथन अमान्य होकर अन्त में वह दण्डित होता है, उसी प्रकार निरपराध प्राणियों को धर्म के नाम पर मार कर फिर ऊपर से न्यायाधीश बनने का ढोंग करने वाले भी अन्त में अपराधी के कठहरे में खड़े किये जाकर कर्म रूपी न्यायाधीश से अवश्य अपराध का दण्ड पाएंगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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