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न्यायाधीश या अन्याय प्रवर्तक
आसन पर बैठने की चेष्टा करना भी निष्फल ही है। यहां भी आपके लिये न्यायाधीश के बजाय अन्याय प्रवर्तक पद ही घटित होता है।
सर्वप्रथम यह तर्क ही असंगत है क्योंकि राज्य नीति से धर्म नीति भिन्न है। राज्य नीति जीवन व्यवहार और सर्व साधारण में शांति की सुव्यवस्था स्थापित कर सांसारिक उन्नति की साधना के लिये द्रव्य क्षेत्रादि की अपेक्षा से होती है, और धर्म नीति स्वपर कल्याण मोक्षमार्ग के साधनार्थ होती है, राज्यनीति में मनुष्य के सिवाय प्रायः सभी प्राणियों की हत्या का दण्ड विधान नहीं भी होता है। किन्तु धर्म नीति में सूक्ष्म स्थावर की भी हिंसा को पाप बता कर हिंसा कर्त्ता को दण्ड का भागी माना है। यहां तक ही नहीं मन से भी बुरे विचार करना हिंसा में गिना गया है, ऐसी हालत में न्यायाधीश का उदाहरण धार्मिक मामलों में अनुचित है। फिर भी यदि यह बाधा उपस्थित नहीं की जाय तो भी इस दृष्टान्त पर से मूर्ति पूजक पूजा जन्य हिंसा के अपराध से मुक्त नहीं हो सकते, उल्टे अधिक फंसते हैं।
उक्त उदाहरण में मुख्य तीन पात्र हैं - १. हत्यारा २. जिसकी हत्या की गई हो वो और तीसरा न्यायाधीश | प्रथम पात्र हत्याकारी, जब दूसरे व्यक्ति की हत्या कर डालता है, तब गिरफ्तार होकर तीसरे पात्र न्यायाधीश के सम्मुख अपराध की जांच और उचित दण्ड के लिये नगर रक्षक की ओर से खड़ा किया जाता है। न्यायाधीश अपराधी का अपराध प्रमाणित होने पर योग्य पंचों से परामर्श कर कानून के अनुसार ही दण्ड देता है। न्यायाधीश इस प्रकार के अपराधों के दण्ड देने योग्य न्याय शास्त्र का अभ्यासी और अधिकार सम्पन्न होता है इसीसे अपराधी को अपराध की शिक्षा न्यायशास्त्रानुसार प्राण दण्ड तक देता हुआ भी हत्यारा दोषी नहीं हो सकता ।
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