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________________ श्री लोकाशाह मत - समर्थन हमारे मूर्तिपूजक बन्धु यह बतावें कि क्या साधु भी पुष्प से पूजा करे? आपके मान्य अर्थ से तो मूर्तिपूजक साधुओं को भी फूलों से पूजा करना चाहिये, फिर आपके साधु क्यों नहीं करते? इससे तो यही फलित होता है कि आपका यह अर्थ व्यर्थ है तभी तो इसका पालन आप के साधु नहीं करते हैं। १०७ इस विषय में मूर्ति पूजक आचार्य विजयानंदसूरिजी कहते हैं कि'सामायिक में साधु तथा श्रावक पूर्वोक्त महिया शब्द से पुष्पादिक द्रव्य पूजा की अनुमोदना करते हैं। साधु को द्रव्य पूजा करने का निषेध है परन्तु उपदेश द्वारा द्रव्य पूजा करवाने का और उसकी अनुमोदना करने का त्याग नहीं है । (सम्यक्त्व शल्योद्वार पृ० १८१ ) इनके इस प्रकार मनमाने विधान पर पाठक जरा ध्यान से विचार करें कि जो काम स्वयं साधु के लिए त्याज्य है, वह पाप कार्य खुद तो नहीं करे किन्तु दूसरों से करवावे, यह तीन करण तीन योग के त्याग का पालन करना है क्या ? मुनि खुद तो हिंसा नहीं करे, झूठ नहीं बोले, चोरी नहीं करे, और दूसरों को हत्या करने, झूठ बोलने चोरी करने की आज्ञा दे ? यह सरासर अन्धेर खाता नहीं तो क्या है ? अरे स्वयं वीर पिता ने आचारांगादि आगमों में धर्म के लिए वनस्पत्यादि की हिंसा करने का कटुफल बता कर अपने श्रमण भक्तों को उससे दूर रहने की आज्ञा दी है, स्वयं विजयानंदजी ने भी जैनतत्त्वादर्श में इसी प्रश्न के उत्तर में प्रारंभ में बताये अनुसार वनस्पत्यादि का तोड़ना जीव अदत्त बताया है फिर उसी जीव अदत्त की अनुमोदना मुनि करे, यह भी कह डालना श्री विजयानन्दजी का स्ववचन विरोध रूप दूषण से दूषित नहीं है क्या? ऐसा जीव अदत्त और उसके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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