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समवसरण और मूर्ति ********************************************** हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र के नववें प्रकाश के प्रथम श्लोक में स्वयं प्रभु को ही 'चतुर्मुखस्य' लिख कर चार मुंह वाले कहे हैं किन्तु चार मूर्तिये नहीं कही।
आज भी कितने ही मन्दिरों में एक मूर्ति के आस-पास ऐसे ढंग से शीशे (कांच) रखे हुए देखे जाते हैं कि जिससे एक ही मूर्ति पृथक-पृथक चार पांच की संख्या में दिखाई दे। कई जगह महलों में ऐसे कमरे देखे गये कि जिसमें जाने से एक ही मनुष्य अपने ही समान चार पांच रूप और भी देख कर आश्चर्य करने लग जाता है, यह सब दर्पण के कारण ऐसा दिखाई देता है, जब मनुष्य कृत दर्पण में ही ऐसी विचित्रता दिखाई देती है तब देवकृत समवसरण के उद्योत में
और प्रभामण्डल के प्रकाश तथा तीसरा स्वयं प्रभु का ही देदीप्यमान सूर्य के समान तेजस्वी मुखकमल, इस प्रकार तीन प्रकार के उद्योत से प्रभु चतुर्मुख दिखाई दे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? ___'त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित्र' में और जैन रामायण में लिखा है कि रावण अपने हार की नौ मणियों की प्रभा के कारण दशानन (दश मुंह वाला) दिखाई देता था। रावण के मुंह का प्रतिबिंब हार की नव मणियों में पड़ने से देखने वालों को रावण दश मुख का दिखाई देता था। इसी प्रकार यदि प्रभामण्डलादि के प्रकाश के कारण यदि प्रभु चतुर्मुख दिखाई दें तो इसमें कोई अचरज नहीं। किन्तु तीन दिशाओं में मूर्तिये रखने का कथन तो मूर्ति-पूजक महानुभावों का प्रमाण शून्य और मनःकल्पित ही पाया जाता है।
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