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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
६५ ******************************************* विजयानंदसूरिजी ने भी 'सम्यक्त्व शल्योद्धार' में इस विषय को सिद्ध करने के लिए व्यर्थ प्रयास किया है, वे लिखते हैं कि साक्षात् प्रभु को नमस्कार करते समय 'देवयं चेइयं पञ्जुवासामि' कहते हैं, जिसका अर्थ यह होता है कि -
देव सम्बन्धी चैत्य सो जिन प्रतिमा जिसकी तरह सेवा करूँ, इस प्रकार मनमाना अर्थ किया है, श्रीमान् विजयानंद जी ने तो सम्यक्त्व शल्योद्धार चतुर्थावृत्ति पृ० १०३ में यहां तक लिख डाला है कि - भाव तीर्थंकर से भी जिन प्रतिमा की अधिकता है क्या अब भी अनर्थ में कुछ कसर है? किन्तु इसका अर्थ जो प्रकरण संगत वह मूल पाठ और उसका शुद्ध अर्थ निम्न प्रकार से है देखिये -
कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पजुवासामि।
अर्थ - आप कल्याणकर्ता हैं, मंगल रूप हैं धर्मदेव हैं, ज्ञानवंत हैं, मैं आप की सेवा करता हूँ।
यह अर्थ शुद्ध और प्रकरण संगत है, स्वयं राजप्रश्नीय के काकार आचार्य भी उक्त पाठ की टीका इस प्रकार करते हैं देखिये..........क० कल्याण करित्वात् मं० दुरितोपशम कारित्वात् ३० त्रैलोक्याधिपतित्वात्।
चैत्यं सुप्रशस्त मनोहेतुत्वात्
यहां स्वयं प्रभु को वन्दना करने के विषय में उक्त शब्द का टीकाकार ने सुप्रशस्त मन के हेतु कहकर स्वयं सर्वज्ञ प्रभु को ही इसका स्वामी माना है और प्रभु अनन्त ज्ञानी हैं अतः हमारा उक्त अर्थ ही सिद्ध हुआ। इसका प्रतिमा अर्थ इनके माननीय टीकाकार के मन्तव्य से भी बाधित हुआ। अतएव इस युक्ति से जिन प्रतिमा को जिन समान कहना व्यर्थ ही ठहरता है।
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