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६६ . क्या जिन मूर्ति जिन समान है? ************************************
जब कल्लाणं, मंगलं, दो शब्दों का अर्थ तो आप भी कल्याणकारी, मंगलकारी करते हैं, तब देवयं, चेइयं, इन दो शब्दों का देवता सम्बन्धी चैत्य जिन प्रतिमा की तरह ऐसा अघटित अर्थ किस प्रकार करते हैं? देवयं, चेइयं, भी कल्लाणं, मंगलं की तरह पृथक दो शब्द है वहाँ दोनों का स्वतंत्र भिन्न अर्थ करके यहाँ दोनों को सम्बन्धित करके बाद में उपमावाची वाक्य की तरह लगा देना क्या मन मोह नहीं है? फिर भी अर्थ तो असंगत ही रहा, टीकाकार के मत से भी बाधित ठहरा। अतएव उक्त मन माने अर्थ से प्रश्न को सिद्ध करने की चेष्टा विफल ही है। मूर्ति पूजक समाज के प्रसिद्ध विद्वान् पं० बेचरदासजी को भी चैत्य शब्द का जिन मूर्ति अर्थ मान्य नहीं, इस अर्थ को पंडित जी नूतन अर्थ कहते हैं देखो 'जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानि।'
इसके सिवाय जिन-मूर्ति को जिन समान मानने वाले बन्धु राजप्रश्नीय की साक्षी देते हुए कहते हैं कि यहाँ जिन प्रतिमा को जिन समान कहा है किन्तु यह समझना उनका भूल से भरा हुआ है, राजप्रश्नीय में केवल शब्दालंकार है, किन्तु उसका यह आशय नहीं कि मूर्ति साक्षात् के समान है। . एक साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी यह जानता है कि पत्थर निर्मित गाय साक्षात् गाय की बराबरी नहीं कर सकती, साक्षात् गाय से दूध मिलता है और पत्थर की गाय से बस पत्थर ही। जब साक्षात् फलों से मोहक सुगन्ध मिलती है तब कागज के बनाये हुए फूलों से कुछ भी नहीं। साक्षात् सिंह से गजराज भी डरता है किन्तु पत्थर के बनावटी सिंह से भेड़, बकरी भी नहीं डरती। असली रोटी को खाकर सभी क्षुधा शान्त करते हैं किन्तु चित्रनिर्मित कागज की रोटी को
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