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श्री लोकाशाह मत - समर्थन
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होना स्वाभाविक है। किन्तु मूर्ति से वैराग्योत्पन्न होना आवश्यक नहीं। क्योंकि वैराग्य भाव मोह के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है और क्षयोपशम भाव वाले महात्माओं के लिए तो संसार के सभी दृश्य पदार्थ वैराग्योत्पादक हो सकते हैं, जैसे समुद्रपालजी को चोर. नमिराजर्षि को कङ्कण, भरतेश्वर को मुद्रिका, आदि ऐसे क्षायोपशमिक भाव वालों के लिए मूर्ति की कोई खास आवश्यकता नहीं और इन्हें स्त्री चित्र तो दूर रहा किन्तु साक्षात् देवांगना भी चलित नहीं कर सकती वे तो उसकी भी वैराग्य ग्रहण कर लेते हैं और यह भी निश्चित नहीं कि - एक वस्तु से सभी के हृदय में एक ही प्रकार के भाव उत्पन्न होते हों, साक्षात् वीर प्रभु को ही लीजिए तो परम वीतरागी जितेन्द्रिय, त्यागी महात्मा थे, फिर भी उनको देखकर युवतियों को काम, बालकों को भय और अनार्यों को चोर समझने रूप द्वेष भाव उत्पन्न हुए और भव्य जनों के हृदय में त्याग और भक्ति भाव का संचार होता था इससे यह सिद्ध हुआ कि - एक वस्तु सभी के हृदय में एक ही प्रकार के भाव उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है । जब उदय भाव वाले को साक्षात् प्रभु ही वैराग्योत्पन्न नहीं करा सके तो मूर्ति किस गिनती में है ? दूसरा जिस प्रकार स्त्री चित्र देखने की मनाई है, वैसे प्रभु चित्र देखने की आज्ञा तो कहीं भी नहीं है । इस तरह सिद्ध हुआ कि स्त्री चित्र से काम जागृत होना जिस प्रकार सहज और सरल है, उस प्रकार प्रभु मूर्ति से वैराग्योत्पन्न होना सहज नहीं । किन्तु दलील के खातिर यदि आपका यह अनहोना और बाधक सिद्धान्त थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय तो भी कोई हानि नहीं है । क्योंकि - जिस प्रकार स्त्री चित्र देखने तक ही सीमित है, कोई भी पुरुष काम से प्रेरित होकर चित्र से आलिंगन चुम्बनादि कुचेष्टा
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