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शक्कर के खिलौने ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ महत्त्व देकर उनके सामने खिलाने पिलाने के उद्देश्य से घास, दाना, पानी, रखे और गाय, भैंसादि से दूध प्राप्त करने का प्रयत्न करे, हाथी घोड़े पर सवारी करने लगे तो वह सर्व साधारण के सामने तीन वर्ष के बालक से अधिक सुज्ञ नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार मूर्ति को साक्षात् मानकर जो वन्दना, पूजा, नमस्कारादि करते हैं वे भी तीन वर्ष के लल्लु के छोटे भाई के समान ही बुद्धिमान् (?) हैं।
हमारे सामने तो ऐसी दलीलें व्यर्थ है, यह युक्ति तो वहां देनी चाहिए कि जो स्थापना निक्षेप को ही नहीं मानकर ऐसे खिलौने को भी नहीं खाते हो, किन्तु आश्चर्य तो तब होता है कि - जब यह दलील मूर्तिपूजक आचार्य विजयलब्धिसूरिजी जैसे विद्वान् के कर कमलों से लिखी जाकर प्रकाश में आई हुई देखते हैं।
नक्शे को नक्शा, चित्र को चित्र मानना तथा आवश्यकता पर देखने मात्र तक ही उसकी सीमा रखना, यह स्थापना सत्य मानने की शुद्ध श्रद्धा है। नक्शे चित्र आदि को केवल कागज का टुकड़ा या पाषाणमय मूर्ति को पत्थर ही कहना ठीक नहीं, इसी प्रकार नक्शे चित्र या मूर्ति के साथ साक्षात् की तरह बर्ताव कर लड़कपन दिखाना भी उचित नहीं।
जम्बूद्वीप के नक्शे को और उसमें रहे हुए मेरु पर्वत को केवल कागज का टुकड़ा भी नहीं कहना, और न उसको जम्बूद्वीप या सुदर्शन पर्वत समझकर दौड़ मचाना, चढ़ाई करना। इसके विपरीत चित्र आदि के साथ साक्षात् का सा व्यवहार कर अपनी अज्ञता जाहिर करना सुज्ञों का कार्य नहीं है।
हम मूर्ति पूजक बंधुओं से ही पूछते हैं कि - जिस प्रकार आप मूर्ति को साक्षात् रूप समझ के वन्दन पूजन करते हैं, उसी प्रकार
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