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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
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प्रत्यक्ष में ‘काय-दुष्प्रणिधान' प्रत्यक्ष है, साथ ही मन:दुष्प्रणिधान की कारण बन सकती है, क्योंकि - पूजा में आये हुए पुष्पादि घ्राणेन्द्रिय के विषय का पोषण करने वाले हैं, मनोहर सजाई, आकर्षक दीपराशि और नृत्यादि नेत्रेन्द्रिय को पोषण दे ही देते हैं, वाजिन्त्र और सुरीले तान टप्पे कर्णेन्द्रिय को लुभाने में पर्याप्त है, स्नान शरीर विकार बढ़ाने का प्रथम श्रृंगार ही है, इस प्रकार जिस मूर्ति-पूजा में पांचों इन्द्रियों के विषय का पोषण सुलभ है, वहां मनदुष्प्रणिधान हो तो आश्चर्य ही क्या है? वहां हिंसा भी प्रत्यक्ष है, अतएव मूर्ति-पूजा शरीर और मन दोनों को बुरे मार्ग में लगाने वाली है, कर्म-बंधन में विशेष जकड़ने वाली है, इससे तो केवल वाणी द्वारा किया हुआ नामस्मरण ही अच्छा और वचन दुष्प्रणिधान का अवरोधक है, और कभी-कभी मनःसुप्रणिधान का भी कारण हो जाता है, अतएव मूर्ति-पूजा से नामस्मरण अवश्य उत्तम है। :
यदि यह कहा जाय कि-'हमारी यह द्रव्य-पूजा काय दुष्प्रणिधान होते हुए भी मनःसुप्रणिधान (भाव-पूजा) की कारण है' तो यह भी उचित नहीं, क्योंकि-मनःसुप्रणिधान में शरीर दुष्प्रणिधान की आवश्यकता नहीं रहती, द्रव्य-पूजा से भाव-पूजा बिलकुल पृथक् है, भाव-पूजा में किसी जीव को मारना तो दूर रहा सताने की भी आवश्यकता नहीं रहती, न किसी अन्य बाह्य वस्तुओं की ही आवश्यकता रहती है। भाव-पूजा तो एकान्त मन, वचन और शरीर द्वारा ही की जाती है। अतएव द्रव्य-पूजा को भाव-पूजा का कारण कहना असत्य है।
स्वयं हरिभद्रसूरि आवश्यक में लिखते हैं कि - 'भावस्तव में द्रव्यस्तव की आवश्यकता नहीं।'
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