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नामस्मरण और मूर्ति पूजा
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लेने की आवश्यकता नहीं हुई, अतएव ध्याता को ध्यान करने में मूर्ति की आवश्यकता है, ऐसे कथन एकदम निस्सार होने से बुद्धि गम्य नहीं है। १३. 'नामस्मरण और मूर्ति-पूजा'
प्रश्न - जिस प्रकार आप नामस्मरण करते हैं उसी प्रकार हम मूर्ति-पूजा करते हैं, यदि मूर्ति-पूजा से लाभ नहीं तो नामस्मरण से क्या लाभ? जैसे 'मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर' पृ० ५७ पर लिखा है कि -
"जेम कोई पुरुष हे गाय! दूध दे, एम केवल मुखे थी उच्चारण करे तो तेने दूध मले के नहीं? तमे कहेशो के नहीं, त्यारे परमेश्वर ना नाम थी के जाप थी पण कांई कार्य सिद्ध नहीं थाय तो पछी तमारे परमात्मा हूँ नाम पण न लेवू जोइए।"
इसका क्या समाधान है?
उत्तर - यह तो प्रश्नकर्ता की कुतर्क है और ऐसी ही कुतर्क श्रीमान् लब्धिसूरिजी ने भी की थी जो कि "जैन सत्य प्रकाश' में प्रकट हो चुकी है, इन महानुभावों को यह भी मालूम नहीं कि - 'कोई भी समझदार मनुष्य खाली तोता रटन रूप नाम स्मरण को उच्च फलप्रद नहीं मानता, भाव युक्त स्मरण ही उत्तम कोटि का फलदाता है। किन्तु भाव युक्त भजन के आगे तोते की तरह किया हुआ नामस्मरण किंचित् मात्र होते हुए भी मूर्ति-पूजा से तो अच्छा ही है, क्योंकि केवल वाणी द्वारा किया हुआ नामस्मरण भी 'वाणी सुप्रणिधान' तो अवश्य है और 'वाणी सुप्रणिधान' किसी-किसी समय 'मनः सुप्रणिधान' का कारण बन जाता है, और मूर्ति पूजा तो
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