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श्री लोकाशाह मत-समर्थन ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ स्वयं चारों निक्षेप की मात्र आकृति ही आलंबन बन जाती है, ऐसे ध्यान कर्ता को कोई बुरा नहीं कह सकता।
जो मूर्ति का आलंबन लेकर ध्यान करने का कहते हैं। वे ध्यान नहीं करके लक्ष्य चूक बन जाते हैं, क्योंकि ध्याता का ध्यान तो मूर्ति पर ही रहता है, वह मूर्ति ध्याता को अपने से आगे नहीं बढ़ने देती, ध्याता के सम्मुख मूर्ति होने से ध्यान में भी वही पाषाण की मूर्ति हृदय में स्थान पा लेती है, इससे वह ध्येय में ओट बन कर उसको वहां तक पहुंचने ही नहीं देती, जैसे एक निशाने बाज किसी वस्तु को लक्ष्य कर निशाना मारता है तो लक्ष्य को वेध सकता है। अर्थात् उसका निशाना लक्षित वस्तु तक पहुंच सकता है, किन्तु वही निशानेबाज लक्षित वस्तु को वेधने के लिये निशाना मारते समय अपने व लक्ष्य के बीच में कुछ दूसरी वस्तु ओट की तरह रख कर उसी की ओर निशाना मारे या बीच में दिवाल खड़ी कर फिर निशाना चलावे तो उसका निशाना वह दिवाल रोक लेती है जिससे वह लक्ष्य भ्रष्ट हो जाता है, इसी प्रकार मूर्ति को सामने रख कर ध्यान करने वाले के लिये मूर्ति, दिवाल (ओट) का काम करके ध्याता का ध्यान अपने से आगे नहीं बढ़ने देती। बिना मूर्ति के किया हुआ ध्यान ही अर्हत् सिद्ध रूप लक्ष्य तक पहुंच कर चित्त को प्रसन्न और शांत कर सकता है, अतएव ध्यान में मूर्ति की आवश्यकता नहीं है।
शास्त्रों में भरतेश्वर, नमिराज, समुद्रपाल आदि महापुरुषों का । वर्णन आता है, वहां यह बताया गया है कि उन्होंने बिना इस प्रचलित जड़ मूर्ति के मात्र भावना से ही संसार छोड़ा और चारित्र स्वीकार कर आत्म कल्याण किया है। भरतेश्वर ने अनित्य भावना से केवलज्ञान प्राप्त किया किन्तु उन्हें किसी मूर्ति विशेष के आलंबन
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