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अवलम्बन
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ध्यान के वर्णन में प्रारम्भ के सात श्लोकों द्वारा पृ० ३७१ में ध्यान करने की विधि इस प्रकार बताई गई है।
मोक्ष श्रीसंमुखीनस्य, विध्वस्ताखिल कर्मणः । चतुर्मुखस्य निःशेष, भुवनाभयदायिनः॥ १॥ इन्दु मण्डल शंकाशच्छत्र त्रितय शालिनः । लसद् भामण्डला भोग विडंबित विवस्वतः ॥ २ ॥ दिव्य दुंदुभिनिर्घोष गीत साम्राज्यसम्पदः । स्णद् द्विरेफ झंकार मुखराशोकशोभिनः ॥ ३ ॥ सिंहासन निषण्णस्य वीज्य मानस्य चामरैः । सुरासुर शिरोरत्न, दीप्तपादनखद्युतेः॥ ४ ॥ द्विय पुष्पोत्कराsकीर्ण, संकीर्णपरिषदभुवः । उत्कंधरैर्मृगकुलैः पीयमानकलध्वनैः ॥ ५ ॥ शांत वैरेभ सिंहादि, समुपासित संनिधेः । प्रभोः
: समवसरण, स्थितस्य परमेष्ठिनः ॥ ६ ॥ सर्वातिशय युक्तस्य केवल ज्ञान भास्वतः । अर्हतो रुपमालंब्य, ध्यानं रूपस्थ मुच्यते ॥ ७ ॥ इन सात श्लोकों में बताए अनुसार साक्षात् समवसरण में बिराजे हुए सम्पूर्ण अतिशय वाले नरेन्द्र, देवेन्द्र तथा पशु पक्षी मनुष्य आदि से सेवित तीर्थंकर प्रभु का ही अवलंबन कर जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं ।
उक्त प्रकार से सच्ची आकृति को लक्ष्य कर उत्तम ध्यान किया जा सकता है। ऐसे ध्यान में मूर्ति की तनिक भी आवश्यकता नहीं,
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