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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
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थाशक्य मनन करने का प्रयत्न किया जाय और ऐसे प्रयत्न में सदैव उत्तरोत्तर वृद्धि की जाय तो अपूर्व आनन्द प्राप्त हो कर जीव का उत्थान एवं कल्याण हो सकता है। ऐसी एक २ भावना से कितने ही राणी संसार समुद्र से पार होकर अनन्त सुख के भोक्ता बन चुके हैं। ऐसे धर्म ध्यानों में मूर्ति की किंचित् मात्र भी आवश्यकता नहीं, ध्येय स्वयं आलंबन बन जाता है। शरीर को लक्ष्य कर ध्यान करने वाले को श्री केशरविजयजी गणिकृत गुजराती भाषांतर वाली चौथी आवृत्ति के योग शास्त्र पृ० ३४६ में 'आकृति ऊपर एकाग्रता' विषयक निम्न लेख को पढ़ना चाहिये - - "कोई पण पूज्य पुरुष उपर भक्ति वाला माणसो घणी सहेलाई थी एकाग्रता करी शके छे धारो के तमारी खरी भक्ति नी लागणी भगवान महावीर देव उपर छे तेओ तेमनी छद्मस्थावस्था मां राजगृहीनी पासे आवेला वैभार गिरि नी पहाड़नी एक गीच झाड़ी वाला प्रदेश मां आत्म ध्यान मां लीन थई उभेला छे आ स्थले वैभार गिरि गीच झाड़ी सरिता ना प्रवाहो नो घोघ अनेतेनी आजु बाजु नो हरियालो शान्त अने रमणीय प्रदेश आ सर्व तमारा मानसिक विचारो थी फल्यो, आ कल्पना शुरुआत मां मनने खुश राखनार छे, पछी प्रभु महावीर नी पगथी ते मस्तक पर्यंत सर्व आकृति एक चितारो जेम चितरतो होय तेम हलवे हलवे ते आकृति नुं चित्र तमारा हृदय पट पर चितरो, आलेखो, अनुभवो आकृति ने तमे स्पष्ट पणे देखता हो तेटली प्रबल कल्पना थी मनमां आलेखी तेना उपर तमारा मनने स्थिर करी राखो, मुहूर्त पर्यंत ते उपर स्थिर थतां खरेखर एकाग्रता थशे।" ... इसके सिवाय इसी योग शास्त्र के नवम प्रकाश में रूपस्थ
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