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अवलम्बन
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ध्या
ध्यान करने से मूर्ति ध्याता का ध्यान रोक रखती है, अपने से आगे नहीं बढ़ने देती, यह प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध बात है। अतएव मूर्ति पूजा करणीय सिद्ध नहीं हो सकती।
१२. अवलम्बन प्रश्न - बिना अवलम्बन के ध्यान नहीं हो सकता इसलिए अवलंबन रूप मूर्ति रखी जाती है, मूर्ति को नहीं मानने वाले ध्यान किस तरह कर सकते हैं?
उत्तर - ध्यान करने में मूर्ति की कुछ भी आवश्यकता नहीं, जिन्हें तीर्थंकर के शरीर और बाह्य अतिशय का ध्यान करना है वे सूत्रों से उनके शरीर और अतिशय का वर्णन जान कर अपने विचारों से मन में कल्पना करे और फिर तीर्थंकरों के भाव गुणों का चिन्तन करे। बिना अनन्तज्ञानादि भाव गुणों का चिन्तन किये, अतिशयादि बाह्य वस्तुओं का चिन्तन अधिक लाभकारी नहीं हो सकता। ध्यान में यह विचार करे कि प्रभु ने किस प्रकार घोर एवं भयंकर कष्टों क सामना कर वीरता पूर्वक उनको सहन किये और समभाव युक्त चारित्र का पालन कर ज्ञानादि अनन्त चतुष्ट्य रूप गुण प्राप्त किये ज्ञानावरणीयादि कर्मों की प्रकृति, उनकी भयंकरता आदि पर विचार कर शुभ गुणों को प्राप्त करने की भावना करे, ज्ञानी पुरुषों के स्तुति करे, इस प्रकार सहज ही में ध्यान हो सकता है, और स्वर ध्येय ही आलंबन बन जाता है, किसी अन्य आलंबन की आवश्यकत नहीं रहती। इसके सिवाय अनित्यादि बारह प्रकार की भावनाएँ प्रमोदादि चार अन्य भावनाएं, प्राणी मात्र का शुभ एवं हितचिन्तक स्वात्म निन्दा, स्वदोष निरीक्षण आदि किसी एक ही विषय को लेक
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