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श्री लोकाशाह मत - समर्थन
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प्रकार जैनत्व का प्रचार कर सकती है? आज तक केवल मूर्ति से किंचित् मात्र भी प्रचार हुआ हो तो बताईये ।
प्रचार जो होता है वह या तो उपदेशकों द्वारा या साहित्य प्रचार से ही । मूर्ति को नहीं मानने वालों की आज संसार में बड़ी भारी संख्या है वैसे साहित्य प्रचार को नहीं मानने वालों की कितनी संख्या हैं? कहना नहीं होगा कि साहित्य प्रचार को नहीं मानने वाली भागी समाज शायद ही कोई विश्व में अपना अस्तित्व रखती हो । नाज पुस्तक द्वारा दूर देश में रहा हुआ कोई व्यक्ति अपने से भिन्न समाज, मत, धर्म के नियमादि सरलता से जान सकता है परन्तु यह कार्य मूर्ति द्वारा होना असंभव को भी संभव बनाने सदृश है, जिस प्रकार अनपढ़ के लिये शास्त्र व्यर्थ है उसी प्रकार मूर्ति-पूजा अजैनों के लिये ही नहीं किन्तु श्रुतज्ञान रहित मूर्ति पूजकों के लिये भी व्यर्थ है। मूर्ति पूजक बंधु जो मूर्ति को देखने से ही प्रभु का याद आना कहते हैं, यह भी मिथ्या कल्पना है, यदि बिना मूर्ति देखे प्रभु याद नहीं आते हों तो मूर्ति पूजक लोग कभी मन्दिर को जा ही नहीं सकते क्योंकि मूर्ति तो मन्दिर में रहती है और घर में या रास्ते चलते फिरते तो दिखाई देती नहीं जब दिखाई ही नहीं देती तब उन्हें याद कैसे आ सके ? वास्तव में इन्हें याद तो अपने घर पर ही आ जाती है जिससे ये लोग तान्दुल आदि लेकर मन्दिर को जाते हैं । अतएव उक्त कथन भी अनुपादेय है।
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जिनको तीर्थंकर प्रभु के शरीर या गुणों का ध्यान करना हो उनके लिये तो मूर्ति अपूर्ण और व्यर्थ है। ध्याता को अपने हृदय से मूर्ति को हटाकर औपपातिक सूत्र में बताये हुए तीर्थंकर स्वरूप का योग शास्त्र में बताए अनुसार ध्यान करना चाहिये, मूर्ति के सामने
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