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क्या शास्त्रों का उपयोग करना भी मूर्तिपूजा है ?
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देने वाला है, क्योंकि कोई भी समझदार मनुष्य कागज और स्याह के बने हुए शास्त्रों को ही जिनवाणी या ईश्वर वाक्य नहीं मानता, पुस्तक पन्ने ही सर्वज्ञ वचन हैं, हां पुस्तक रूप में लिखे हुए शास्त्र पढ़ने या भूले हुए को याद कराने में भी साधन रूप अवश्य होते है और उनके उपयोग की मर्यादा भी पढ़ने पढ़ाने तक ही है, किन्न उनको ही जिनवाणी मान कर वन्दन नमन करना या सिर पर उठ कर फिरना, यह तो केवल अन्ध भक्ति ही है । क्योंकि वन्दनाि सत्कार ज्ञानदाता आत्मा का ही किया जाता है । हमारी इस मान्यत के अनुसार हमारे मूर्ति-पूजक बन्धु श्री यदि मूर्ति को मूर्ति दृष्टि से देखने मात्र तक ही सीमित रक्खें तब तक तो यह स्मरण रहे कि जिस प्रकार शास्त्रों का पठन पाठन रूप उपयोग ज्ञान वृद्धि में आवश्यक है उसी प्रकार मूर्ति आवश्यक नहीं । शास्त्र द्वारा अनेकों का उपकार हो सकता है क्योंकि साहित्य द्वारा ही अजैन जनता में भारत वे भिन्न-भिन्न प्रांतों और विदेशों में रहने वालों में जैनत्व का प्रचार प्रचुरता से हो सकता है। मनुष्य चाहे किसी भी समाज या धर्म क अनुयायी हो, किन्तु उसकी भाषा में प्रकाशित साहित्य जब उस वे पास पहुंच कर पठन पाठन में आता है तो उससे उसे जैनत्व के उदार एवं प्राणी मात्र के हितैषी सिद्धान्तों की सच्ची श्रद्धा हो जाती है। इस से जैन सिद्धान्तों का अच्छा प्रभाव होता है, आज भारत विदेशों के जैनेत्तर विद्वान् जो जैन धर्म पर श्रद्धा की दृष्टि रखते हैं या सब साहित्य प्रचार (जो स्वल्प मात्रा में हुआ है) से ही हुआ है इसलिये जड़ होते हुए भी सभी को एक समान विचारोत्पादक शास जितने उपकारी हो सकते हैं उनकी अपेक्षा मूर्ति तो किंचित् मात्र
उपकारक नहीं हो सकती, आप ही बताइये कि अजैनों में मूर्ति कि
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