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________________ १- अध्यात्म खण्ड अत्यागकी चर्चा है, विषयके त्याग - अत्यागकी नहीं । विषय इन्द्रियोंके समक्ष उपस्थित हो या न हो यदि चित्तमें उसके प्रति ज्ञातृत्व, कर्तृत्व अथवा भोक्तृत्वकी कामना विद्यमान है तो वह इन्द्रियोंके द्वारा उसे न जानते हुये भी, न करते हुये भी तथा न भोगते हुये भी, चित्तके द्वारा उस विषयको जान रहा है, कर रहा है तथा भोग रहा है । विपरीत इसके यदि चित्तमें उस विषयके प्रति ज्ञातृत्व कर्तृत्व अथवा भोक्तृत्वका कोई अभिमान तथा अहंकार विद्यमान नहीं है, तो भरत चक्रीकी भाँति बाहरमें उसका स्वामी होते हुये भी भीतरमें वह उसका स्वामी नहीं हैं । इन्द्रियोंके द्वारा उसे देखते तथा सुनते हुये भी चित्तके द्वारा वह उसे न देख रहा है और न सुन रहा है, इन्द्रियोंके द्वारा करते तथा भोगते हुये भी चित्तके द्वारा वह न उसमें कुछ कर रहा है और न भोग रहा है । "सेवंतो वि ण सेवई, असेवमाणो वि सेवगो कोई ।” BY समन्वय यह हमारे विकासकी चरमभूमि है। उत्तर-उत्तर सोपानपर पहुँचकर पूर्व- पूर्व सोपानका त्याग करते जाना विकासका क्रम है । उत्तरवर्ती सोपानपर पग जमाये बिना ही यदि पूर्व सोपानको छोड़ दे तो नीचे गिरकर सर तुड़ाये। इसी प्रकार निश्चय भूमिको प्राप्त किये बिना ही यदि व्यवहार भूमिको छोड़ दे तो स्वच्छन्दाचारी बनकर नष्ट हो जाये। इसी प्रकार निश्चय भूमिके प्राप्त होनेपर भी यदि व्यवहार भूमिका त्याग न करे तो विकासका मार्ग रुक जाये । दोनों ही दिशाओंका एकान्त बुरा है। 'व्यवहार भूमिपर जो कुछ भी ग्रहण अथवा त्याग किया जा रहा है वह सब आगे चलकर त्याग देनेके लिये है, चिपकनेके लिये नहीं ।' यह अवधारण करके व्यवहारका अवलम्बन लेना ही निश्चय तथा व्यवहार दोनोंके मध्यमें रहकर चलना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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