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११. धर्म
१. चारित्तं खलु धम्मो
हृदय अथवा प्रेमके बारेमें जिसका अबतक उल्लेख किया गया है और आत्मोन्नतिकी अथवा गुण-प्राप्तिकी सभी पारमार्थिक भावनाओंमें जिसकी अनुगति अथवा अनुस्यूति दर्शाई गयी है, वह जीवनका अत्यन्त महिमावन्त अन्तिम सारभूत तत्त्व है । भोगासक्ति इसका बहिर्मुख भौतिक स्वरूप है और मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ्य आदि इसके अन्तर्मुख आध्यात्मिक रूप हैं। बहिर्मुख होनेपर जो पतनका हेतु है वही अन्तर्मुख होनेपर साक्षात् धर्म बन जाता है।
"चारित्तखलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिठो । मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥"
चारित्र ही धर्म है। भले व्यवहार भूमिपर अशुभ विषयोंसे निवृत्ति और शुभ विषयोंमें प्रवृत्ति करनेको चारित्र कहा जाता है, परन्तु वास्तवमें वह चारित्र नहीं, चारित्रको हस्तगत करनेका साधन है। यद्यपि साधनके बिना साध्यको प्राप्ति नहीं होती, जिसप्रकार कि मार्गके बिना गन्तव्य स्थानपर पहुँचा नहीं जा सकता, परन्तु मार्ग ही गन्तव्य नहीं होता। साध्यको भूलकर केवल साधनमें अटकने
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