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________________ १० - विनय ६१ परीक्षा करे ? वह किसीको गुरु स्वीकार ही कैसे करेगा ? जब गुरु ही नहीं तब परीक्षा किसकी ? उनके मस्तकपर तो कुन्दकुन्द या महावीर लिखा हुआ नहीं है, और कदाचित् यदि लिखा हुआ भी हो तो वह उसपर विश्वास कैसे करेगा, क्योंकि कृत्रिम रूपसे भी तो नाम लिखा या लिखाया ही जा सकता है । जो सबको सन्देह की दृष्टि से देखता है, वह परीक्षा कैसे कर सकता है । उसके समक्ष तो उसका सन्देह ही साकार होकर उपस्थित रहेगा । इसलिए परीक्षा सम्भव नहीं । अभिमानी परीक्षा कर नहीं सकता और विनयशील परीक्षा करना जानता नहीं । किसी दूसरेकी परीक्षा नहीं करनी है, अपनी ही परीक्षा करनी है। जो अपनी परीक्षा करके 'मैं अभिमानी हूं' यह जान जाता है वह अपने अभिमानको तोड़कर विनयशील बन जाता है, शिष्य बन जाता है । शिष्य बना नहीं कि गुरु प्राप्त हुये नहीं । गुरु दूर नहीं आपके निकट बैठे हैं । निकटसे निकटतम हैं । शिष्य बनना सीख जायें तो गुरु प्राप्त ही हैं । विनयके द्वारा शिष्य बना जाता है, अभिमानके द्वारा नहीं । आत्म-परीक्षाके द्वारा शिष्य बन जाता है,. पर परीक्षा के द्वारा नहीं । विनयके द्वारा शिष्यत्व प्राप्त कर लेनेपर गुरुकी प्राप्ति होती है, और गुरुकी प्राप्ति होनेपर देशना - लब्धि होती है, जिसके बिना तत्त्वदृष्टि खुलना सम्भव नहीं । देशना - लब्धिका स्वरूप आगे बताया जाने वाला है, यहां केवल इतना जानना पर्याप्त है कि गुरु-विनयके बिना तत्त्वदृष्टि प्राप्त होनी सम्भव नहीं और न ही उसकी शरणापत्तिके बिना सहजावस्था ही सम्भव है । "दुर्लभो विषयत्यागः, दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् । दुर्लभा सहजावस्था, सद्गुरोः करुणां विना ॥" गुरुकी यह करुणा या कृपा विनयके विना सम्भव नहीं और विनय अभिमानके सद्भावमें सम्भव नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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