________________
१-अध्यात्म खण्ड ३. भावनाका स्वरूप ____भावना का अर्थ गुणानुभूति अथवा गुणाभिव्यक्ति नहीं है, अपितु-गुणप्राप्तिकी हार्दिक अभिलाषा है, गुण-प्राप्तिके लिये हृदयमें उदित छटपटाहट है। सोलह गुणोंकी उपलब्धि साक्षात् तीर्थकरत्वका कारण नहीं है, उसका कारण उन गुणोंको प्राप्त करनेके लिए हार्दिक अभिलाषा है। ऐसा अवसर कब आयेगा जबकि मैं ऐसा बन जाऊँगा', 'कितना अच्छा हो कि मैं ऐसा बन जाऊँ', 'हाय हाय में कितना अधम हूँ, क्या मुझ जैसा पातकी भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त कर सकता है', 'हे गुरुदेव ! मैं शरण में आया हूँ, मुझपर दया करो' इत्यादि जितनी कुछ भी प्रार्थना-पूर्ण अभिलाषायें या जिज्ञासायें भीतरमें उदित होती हैं अथवा जो अपने दोषोंके प्रति निन्दन गर्हण अथा ग्लानिकी प्रतीति होती है, पश्चाताप आदिके रूपमें उदित होती प्रतीत होती है, अथवा शरणापत्तिके रूपमें जो उदित होती प्रतीत होती है वे सब भावनायें हैं। व्रतोंकी जो पांच-पाँच भावनायें कही गयी हैं उन सबका भी यही रूप है । इन सबका स्थान हृदय है, मन बुद्धि चित्त अथवा अहंकार नहीं।
इस प्रकारसे भावना भानेमें यद्यपि कुछ कर्तृत्वकी प्रतीति अवश्य होती है परन्तु अभिलाष-प्रधान होनेके कारण वह यहाँ गौण है। जितना कुछ कर्तृत्व है वह अनुप्रेक्षाका अंश है और जितना कुछ अभिलाषाका रूप है वह भावना है। इसी प्रकार अनुप्रेक्षामें भी समझना। वहाँ यद्यपि चिन्तवन प्रधान है तदपि उसके साथ संवेग तथा वैराग्यका भाव भी अवश्य रहता है। जगतकी अनित्यता आदिका विचार करते समय संसारके प्रति भयभीत हो जाना संवेग कहलाता है। इसी प्रकार शरीरकी अशुचिताका चिन्तवन करते हुये तथा भीतरके कार्मण शरीरके स्वभावका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org