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९ - भावना
२. अनुप्रेक्षा और भावना में अन्तर
यद्यपि व्यवहार भूमिपर अनुप्रेक्षाको हो भावना कह दिया जाता है । परन्तु तत्वदृष्टिसे देखनेपर इन दोनोंमें आकाश पातालका अन्तर है। किसी भी एक विषयका पुनः पुनः चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा कहलाता है जो ज्ञानकी पर्याय है, चित्तका कार्य है । परन्तु भावनाका वास हृदय-लोकमें होता है, ज्ञान अथवा चित्तमें नहीं । अनुप्रेक्षामें अहं इदंका द्वैत होता है जब कि भाव केवल संवेदन रूप होता है। अनुप्रेक्षाका विषय अपने से बाहर दिखाई देता है परन्तु भावना स्वयं अन्दरमें प्रतीत होती है । अनित्य अशरण आदि अनुप्रेक्षायें हैं भावना नहीं, जबकि मैत्री प्रमोद कारुण्य आदि भावनायें हैं । अनुप्रेक्षा वैराग्य भावकी साधक है, स्वयं वैराग्य नहीं । हृदयमें वैराग्य भाव उदित हो जानेपर अनुप्रेक्षा, चिन्तवन अथवा चित्तका अवलम्बन छूट जाता है परन्तु हृदयका अवलम्बन नहीं छूटता है । भले ही अनुप्रेक्षा परम्परा रूपसे भवनाशिनी हो, परन्तु भावना जिस प्रकार साक्षात् रूपसे भवनाशिनी है उस प्रकारसे अनुप्रेक्षा नहीं है । अनुप्रेक्षाओंसे तोर्थंकरत्वका बन्ध नहीं होता है, भावनाओंसे होता है ।
अनुप्रेक्षा अथवा चिन्तवन किया जा सकता है परन्तु भाव होता है किया नहीं जाता । भाव शब्दको व्युत्पत्ति भी 'होना' अर्थ में प्रयुक्त 'भू' भव' धातुसे हुई है, करना अर्थमें प्रयुक्त 'कृ' धातुसे नहीं । भले ही 'भावना भाओ', 'सोलह कारण भावनायें भानेसे 'तीर्थंकरत्वा बन्ध होता है' इत्यादि रूपसे भावनाके क्षेत्र में कर्तृत्व का उल्लेख होता है परन्तु उपदेश तथा प्रेरणा होनेसे वह उपचार है । इसी प्रकार सोलह कारण भावनाओंके लक्षण भी क्रिके रूपमें किये गये हैं परन्तु वास्तव में वे क्रिया नहीं भाव हैं ।
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