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७- भ्रान्ति दर्शन
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ध्वज भूमिके स्थानपर यहां पंचम भूमि है 'चित्त', जिसका विस्तृत विवेचन पहले किया जा चुका है। कदाचित् ज्ञानाभिमान वाली चतुर्थ भूमिसे बाहर निकल आये तो यहां आकर अटक जाता है, वायुमें लहलहाती चंचल ध्वजाकी भांति भीतर ही भीतर इस लोक विषयक तथा परलोक विषयक विकल्पजाल बुनता हुआ चिन्तामें डूब जाता है । वैकल्पिक जगत बसाता है और मिटाता है । कल्पना ही कल्पनामें मुक्त होनेके स्वप्न देखने लगता है ।
समवशरणकी षष्ठम् भूमिका नाम है 'कल्पभूमि' । चित्तगत उपर्युक्त विकल्पों का घनीभूत होकर वासनाका रूप धारण कर लेना इसका स्वरूप है । इसीलिये यहाँ उसे वासना भूमि कहा गया है | यहाँ पहुँचनेपर व्यक्तिको यह पता चल जाता हैं कि मेरा चित्त वासनाओं में जकड़ा हुआ है, परन्तु ये वासनायें क्या हैं, किस प्रकार पैदा होती हैं और किस प्रकार इनके बन्धनको तोड़ा जा सकता है, इस प्रकारके कर्म- रहस्यका ज्ञान न होनेके कारण वह बिना सोचे समझे केवल अन्य साधकोंकी नक़ल करके कठोरसे कठोर तपश्चरण करने लगता है । परन्तु अज्ञान-जन्य होनेके कारण उसका वह सब पुरुषार्थं व्यर्थ होकर रह जाता है ।
सप्तम भूमिका नाम यहाँ है अहंकार भूमि, जिसका स्वरूपचित्रण पहले किया जा चुका है। अहम् इदंके रूपमें द्विधा विभक्त ज्ञानके सर्व व्यापक पारमार्थिक स्वरूपका शरीर इन्द्रिय मन बुद्धि तथा चित्त की परिधियोंमें बद्ध होकर, संकीर्ण हो जाना ही उसका लक्षण है । अपने इस क्षुद्र व्यक्तित्वको पूर्ण मानकर समग्रको छोड़ देना अथवा समग्रमें प्वायंट लगाकर जाननेकी विधिको अपना लेना ही इसका इस भूमिमें अटकना है । हृदयकी अष्टम भूमिमें प्रवेश किये बिना इसका अतिक्रम सम्भव नहीं ।
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