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________________ ७-भ्रान्ति दर्शन २. पाठ भूमिय अर्हन्त भगवान् के समवशरणकी प्रथम भूमिका नाम चैत्यप्रासाद भूमि है । उसके स्थानपर यहां इन्द्रियभूमि है। इसके अन्तर्गत दो विभाग हैं-ज्ञान विभाग तथा कर्म विभाग । ज्ञान विभागका काम जानना है और कर्म विभागका काम भागना दौड़ना तथा करना है। ज्ञान विभागके अन्तर्गत दो करण या साधन हैं- अन्तष्करण तथा बहिर्करण । मन बुद्धि आदि अन्तष्करणोंका नामोल्लेख चित्त वाले अधिकारमें किया जा चुका है। यहां बहिर्करण प्रधान है। इसके अन्तर्गत पांच ज्ञानेन्द्रिय हैं-त्वक, रसना, घ्राण, नेत्र तथा श्रोत्र । कर्म-करणके अन्तर्गत भी इसी प्रकार पांच इन्द्रियें हैं-हाथ, पांव, वाक् या जिह्वा, गुदा तथा उपस्थ । इनका विशेष स्वरूप आगे बताया जानेवाला है, यहां केवल इतना समझना कि दोनों प्रकारकी इन इन्द्रियोंके पोषणमें संलग्न सकल संसारी जीव इस भूमिमें अटके हुए हैं। आत्म-कल्याणकी भावनासे जो मुमुक्षु साधनाके क्षेत्रमें प्रवेश करते हैं वे भी पूर्वसंस्कारके कारण इसी भूमिमें अटके रहते हैं। आंखोंसे भगवत् प्रतिमाके दर्शन करके कानोंसे शास्त्रादि सुनकर, हाथोंसे भगवत्प्रतिमाका अभिषेक तथा पूजन करके, वाक् या जिह्वासे भगवद्स्तोत्रोंका पाठ करके और पांवसे तीर्थाटन आदि करके सन्तुष्ट हो जाते हैं । यद्यपि उपर्युक्त संसारी जनोंको अपेक्षा ये कुछ आगे हैं, परन्तु इस भूमिका अतिक्रम नहीं कर पाए हैं, अर्थात् इन्द्रियोंकी पृष्ठभूमि में स्थित उस चेतना-शक्तिका दर्शन नहीं कर पाये हैं; अथवा उसका दर्शन करनेका प्रयत्न नहीं करते हैं, जिसकी ज्योतिसे ज्ञानेन्द्रिय ज्योतिष्मती हैं और जिसकी चेष्टासे कर्मेन्द्रियें कर्मशील हैं। ___ अर्हन्त भगवान्के समवशरण की द्वितीय भूमिका नाम है खातिका भूमि। उसके स्थानपर यहां प्रागभूमि है। इस शरीरमें Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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