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________________ २-आभ्यन्तर-जगत १३ इस उदाहरणपर से आपने देखा कि भिखारीको पैसा देनेके संकल्पसे प्रारम्भ होकर आपके विकल्प अर्थसे अर्थान्तर होते हुए कड़ोबद्ध रूपसे धीरे-धीरे तृतीय महायुद्धकी विभीषिका तक पहुँच गये, पैसा देते समय आप जिसका स्वप्न भी नहीं देख सकते थे। इस प्रकार आद्य स्फुरणावाले संकल्पको मध्यमें स्थापित करके उसकी परिक्रमा करनेवाले धारावाही विकल्पोंका पिण्ड ही चित्तका निज स्वरूप है। इसीलिये पहले इन्हें वर्तुलाकार कहा गया है। भावात्मक होनेसे वास्तवमें वहाँ कोई आकार होना सम्भव नहीं है। ५. मध्यलोक परस्पर परिवेष्टित असंख्यात् वर्तुलाकार द्वीप समुद्रोंका पिण्ड शास्त्रमें मध्यलोकका स्वरूप बताया गया है। उसके रूपमें चित्रित करनेके उद्देश्यसे ही यहाँ जलगत वीचिमालाका उदाहरण देकर विकल्पोंका चित्रण किया गया है। असंख्यात विकल्पोंके पिण्डरूप यह चित्त ही इस शरीरमें स्थित आभ्यन्तर शरीरकी नाभि है और यही आभ्यन्तर जगतका मध्यलोक है। विकल्पोंके मध्य अचल रूपसे स्थित होनेके कारण संकल्प नामकी आद्य स्फुरणा सुमेरु-पर्वत है और उसकी परिक्रमा करते रहनेके कारण विकल्प ही द्वीप-समुद्र हैं जिनकी संख्या गणनातीत होनेसे असंख्यात हैं। प्रत्येक अवान्तर विकल्पका विषय-क्षेत्र अपनेसे पूर्ववर्ती की अपेक्षा द्विगुण-द्विगुण विस्तार युक्त है, यह बात व्यक्तिके लिये अनुभव-सिद्ध है। प्रथम दो-तीन विकल्पोंकी पूर्ति ही उसके लिये कदाचित् तत्काल सम्भव हो सकती है उससे अधिक नहीं, इसलिये उतना मात्र ही अढाई-द्वीप-प्रमाण उसका मनुष्य-लोक है । उसके बाह्यवर्ती अन्य सकल विकल्पोंके विषयका स्पर्श अथवा पूर्ति उसके लिये किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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