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________________ २९-दस करण १७५ है तदपि इस अवधिके पूरा हो जानेपर उसका चित्त पुनः पहलेकी भांति चिन्ताग्रस्त तथा क्षुब्ध हो उठता है । यद्यपि संस्कार उदित होकर जीवपर अपना प्रभाव डालना प्रारम्भ कर देते हैं, तदपि उपशमके कालमें क्षणिक समताके जिस रसका पान वह कर चुका है, उसकी मधुर-स्मृति अमिट होकर रह जाती है। जिस शिशुने आजतक मलाई कभी देखी नहीं है, उसे यदि माता मलाई खिलाना चाहे तो वह बच्चा खानेकी इच्छा नहीं करता, और मलाईको ओरसे अपना मुंह घुमा लेता है। इसी प्रकार संसारवासी सभी प्राणी जिन्होंने कि आजतक चित्तविश्रान्तिका रस-पान कभी नहीं किया है वे विषय-भोगोंसे प्राप्त सुखसे हटकर उसकी ओर उन्मुख होनेकी इच्छा नहीं करते हैं। गुरुदेवके कहनेपर भी वे उसकी ओर उन्मुख होनेकी बजाय उससे विमुख हो जाते हैं। जिस प्रकार बालकके होठोंपर मलाईकी एक अंगुली लगाने मात्रसे शिशुका मुंह स्वयं मलाईकी ओर घूम जाता है और न मिलनेपर रोने लगता है, उसी प्रकार संस्कारोंके उपशमसे प्राप्त क्षणिक समताका रस आ जानेपर व्यक्तिकी सकल प्रवृत्तियां स्वयं उस ओर उन्मुख हो जाती हैं। वह सदा उसीका स्मरण किया करता है और न मिलनेपर छटपटाने लगता है। इस प्रकार संस्कारोंका उपशम यद्यपि कहनेके लिये क्षणमात्रका होता है, तदपि उसकी स्मृति चित्तको इस प्रकार जकड़ लेती है कि चाहनेपर भी वह उससे छूट नहीं सकता। उपशमसे प्राप्त यह रसोन्मुखता व्यक्तिको निरन्तर बाह्य-जगत्से हटाकर आभ्यन्तर-जगत्में प्रवेश पानेके लिये उकसाती रहती है, जिसके फलस्वरूप वह झूलेमें झूलने लगता है। अपना पूरा बल लगाकर वह भीतरमें स्थित उस रसकी ओर जाता है परन्तु कुछ ही देरमें दुष्ट संस्कारोंके द्वारा पुनः बाहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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