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________________ १७४ २-कर्म खण्ड पापात्मक-जीवनको पुण्यात्मक बनाकर धीरे-धीरे तत्त्वालोकमें प्रवेश कर सकता है। याद रहे कि अपकर्षण तथा उत्कर्षणके द्वारा संस्कारोंकी स्थितिमें तथा अनुभागमें अन्तर पड़ जाना और संक्रमणके द्वारा उनकी जातिका बदल जाना, ये तीनों कार्य सत्तामें स्थित उन संस्कारोंमें ही होने सम्भव हैं जो कि उदयकी प्रतीक्षामें प्रसुप्त पड़े हुए हैं। उदयकी सीमामें प्रवेश हो जानेपर उनमें किसी प्रकारका भी हेर-फेर होना सम्भव नहीं है। जैसा तथा जो कुछ भी संस्कार उदयकी सीमामें प्रवेश पा चुका है उसका फल भोगे बिना निबटारा सम्भव नहीं। अर्थात् वह अपना पूरा प्रभाव दिखाये बिना मार्गसे हट जाये, यह सम्भव नहीं। ४. उपशम, क्षय, क्षयोपशम जिस प्रकार कन्याके विवाह जैसे किसी बड़े कार्यके पूरा हो जाने पर चित्त कुछ देरके लिये शान्त हो जाता है, अथवा जिस प्रकार परीक्षायें पूरी हो जानेपर विद्यार्थी कुछ देर के लिये चिन्तासे मुक्त हो जाता है और उसके फलस्वरूप शान्तचित्त होकर वह कुछ देरके लिये सो जाता है, उसी प्रकार सेवा, प्रेम, भक्ति आदि किसी सात्त्विक कार्यमें उपयुक्त हो जानेपर व्यक्ति के संस्कार कुछ देरके लिये शान्त हो जाते हैं अथवा फलदानसे विरत हो जाते हैं। उस समय कुछ देरके लिये जीव उनके प्रभावसे मुक्त हो जाता है। संस्कारगत क्षोभ की यह क्षणिक विश्रान्ति ही 'उपशम' शब्दका वाच्य है। इसकी अल्पमात्र कालावधिके पूरा हो जानेपर संस्कार पुनः जाग्रत होकर पूर्ववत् अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ कर देते हैं। यद्यपि उपशमकी इस अल्प-कालावधिमें संस्कारोंका प्रभाव हट जानेके कारण जीव अपनेको सम तथा शम हुआ महसूस करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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