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२९-दस करण
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हूं। करणानुयोग जहां द्रव्य-कर्मको प्रधान मानकर विवेचन करता है, वहां ही अध्यात्म चित्तगत संस्कारोंको प्रधान मानकर कथन करता है। इन दोनोंका समन्वय करनेके लिये संस्कारोंका यह अंकन हम अब चित्त-भूमिपर न करके द्रव्य-कर्मोपर अथवा कार्मणशरीरपर करेंगे। जैसा कि पहले बताया जा चुका है 'चित्त' वास्तवमें कोई स्वतन्त्र सत्ताधारी पदार्थ नहीं है, द्विधा विभक्त ज्ञान का 'अहं' वाला भाग ही इस शब्दका वाच्य है। ज्ञानका यह विभक्तीकरण क्योंकि संस्कारोंके कारण होता है इसलिए समन्वयकी दृष्टिसे देखनेपर उक्त कथन विरोधको प्राप्त नहीं होता। कार्यमें कारणका उपचार करके भले ही अध्यात्म भाषामें हम चित्तको संस्कारोंका अधिकरण कहें, परन्तु सिद्धान्ततः इनका अंकन कार्मण-शरीरपर होता है, चित्तपर नहीं। चित्त तो उसके फलस्वरूप ज्ञानके विश्वव्यापी स्वरूपमें उदित हो जाता है।
संस्कारोंमें तथा उससे अंकित द्रव्य-कर्ममें यद्यपि स्वरूपतः कोई भेद नहीं है तदपि सैद्धान्तिक दृष्टिसे उनका भेद प्रत्यक्ष है। आगमगम्य होनेके कारण यद्यपि द्रव्यकर्म अथवा कार्मण-शरीर सत्य है तदपि अनुभव-गम्य न होनेके कारण वह हमसे बहुत दूर है, जबकि अनुभवगम्य होनेके कारण संस्कार हमारे अधिक निकट है। इसलिये अध्यात्मके क्षेत्रमें संस्कारकी ओरसे बात करना अन्याय नहीं है।
यह बात पहले बताई जा चुकी है कि मनसे, वचनसे अथवा कायसे ज्ञातृत्व, कर्तृत्व अथवा भोक्तृत्व रूपमें जो कुछ भी कार्य हम करते हैं, वह हमारा कर्म होता है। प्रतिसमय इस कर्मका संस्कार द्रव्य-कर्मोंपर अथवा उनसे निर्मित कार्मण-शरीरपर अंकित होता रहता है। समय-समयवर्ती होनेवाला यह संस्कारांकण ही आस्रव शब्दका वाच्य है। अभ्यासवश धीरे-धीरे इनका घनीभूत
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