SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८-संस्कार १५९ विशद परिचय होना आवश्यक है। आइये इस तत्वका कुछ अध्ययन करें। ___ यद्यपि जैन-शास्त्रमें संस्कार नामके किसी तत्त्वका स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, तदपि अनुभव-सिद्ध होनेसे यह विरोधको प्राप्त नहीं होता। जैसा कि आगे बताया जानेवाला है हम अपनी ओरसे इसका आस्रव-तत्त्वमें अन्तर्भाव कर सकते हैं। 'कायवाङ्मन:कम योगः । स आस्रवः' यह सूत्र इस विषयमें प्रमाण है। २. संस्कार-परिचय बाह्य-जगत्में अथवा आभ्यन्तर-जगत्में हम जो कुछ भी काम या कर्म करते हैं, वह काम या कर्म यद्यपि उसी क्षण समाप्त हो जाता है, तदपि जाते-जाते हमारी चित्त-भूमिपर वह उसी प्रकार अपना पद-चिह्न अंकित कर जाता है, जिस प्रकार कि मातायें घरके द्वारोंपर हाथके थापे । यह अंकन उसके समाप्त होने के पश्चात् भी वहाँ स्थित रहता है । यद्यपि आपको यह बात कुछ अपरिचित सी प्रतीत होती है, परन्तु तनिक अपने भीतर देखने से आपको इसकी सत्यताका भान हो जायेगा। जिस प्रकार कच्चो भूमिपर चलते हुए हमारे पग उसपर अपने चिह्न अंकित कर जाते हैं, उसी प्रकार हमारा हर कार्य या कर्म समाप्त होनेसे पहले हमारी चित्तभूमिपर अपना चिह्न अंकित कर जाता है। यद्यपि अत्यन्त धुंधला अथवा अस्पष्ट होने के कारण पहले-पहल यह चिह्न हमारे दृष्टिपथमें नहीं आता, तदपि अवान्तर काल में कुछ गहरा हो जानेपर वह प्रत्यक्ष रूपसे सामने आकर खड़ा हो जाता है। यद्यपि अपनी पूर्वावस्थामें यह अत्यन्त झोना होता है, और इसलिये कच्ची मिट्टीपर पड़े पद-चिह्नकी भाँति शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, तदपि अवान्तर कालमें परिपक्व हो जानेपर यह पाषाणपर उत्कीरितरेखाकी भाँति मिटानेसे भी नहीं मिटता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy