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१. द्रव्यकर्म तथा भावकर्मका समन्वय
कर्म - खण्डमें प्रवेश पानेके पश्चात् हमने अबतक कमंकी तथा इसकी सकल विशेषताओंकी विस्तीर्ण विवेचना की, जिसके अन्तर्गत कर्मका सामान्य स्वरूप तथा विशेष स्वरूप दर्शानेके साथ-साथ उसके तीन करणोंका, कार्मण शरीरका, कर्म-विधानका, द्रव्य-कर्म, नो-कर्म तथा भावकर्मका तात्त्विक अवलोकन किया । साथ ही यह भी बताया कि फलभोगकी कामनाके कारण इष्टानिष्ट आदि द्वन्द्वोंके रूपमें अहंकारकी काल्पनिक सृष्टि ही वास्तव में बन्धन है, और इन द्वन्द्वोंसे ऊपर उठकर समता तथा शमतामें स्थित होना ही जीवन्मुक्ति है । इतनी कुछ विवेचना हो जानेपर यद्यपि कर्म - रहस्य नामक इस प्रबन्धका प्रतिपाद्य पूरा हो जाता है, तदपि यह सर्व कथन क्योंकि अध्यात्मकी दृष्टिसे किया गया है, इसलिये कर्म- सिद्धान्त के साथ समन्वय स्थापित करनेके लिये इसे कुछ सैद्धान्तिक रूप देना आवश्यक है ।
इससे पहले 'कर्म- सिद्धान्त' नामकी पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है जिसमें इस विषयकी सैद्धान्तिक विवेचना की गयी है । वहाँ यह
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२८. संस्कार
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