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२-कर्म खण्ड
है। मोह-विहीन समता और क्षोभ-विहीन शमतामें नित्य विचरण करते रहनेसे यह स्वरूपाचरण है, स्वभावाचरण है। किसी प्रकारका भी प्रयत्न न होनेसे यह सहजाचरण है। चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-नहाते, खाते-पीते किसी भी अवस्थामें क्यों न हो, यह सहजरूपसे अवस्थित है। प्रयत्न-शून्य सहजावस्था होनेसे यहाँ व्यक्ति चलते हुए भी स्थिर है, बोलते हुए भी मौन है, कुछ करते हुए भी अकर्ता है, विषय सेवते हुए भी असेवक है।
समग्रमेंसे किसी एक विषयके प्रति अपनेको फोकस नहीं करता इसलिये निज उपयोगमें अवस्थित है, ज्ञानमें अवस्थित है। उपयोग या ज्ञानके अतिरिक्त अन्य किसी बातका मिश्रण न होनेसे यह शुद्धोपयोग है। न किसी विषयके प्रति आकर्षण है न विकर्षण, न राग है न द्वेष इसलिये यह वीतरागता है। चित्तका पलड़ा न इस पक्षकी ओर झुकता है न उस पक्षकी ओर, द्रष्टा अथवा साक्षी भावसे दोनोंके मध्यमें अवस्थित रहता है, इसलिये माध्यस्थता है। पूर्णताकी प्राप्ति होनेसे यही वास्तवमें विकल्प-मुक्ति है, संसरण-मुक्ति है, बन्धन-मुक्ति है, जीवन्मुक्ति है ।
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