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________________ २७-जीवन्मुक्ति १५३ ग्राह्य न त्याज्य, न कर्त्तव्य न अकर्तव्य, न पुण्य न पाप । यही है प्रतिक्रमण तथा अप्रतिक्रमणसे अतीत वह तृतीय भूमि जिसे कि ज्ञानियोंने अमृत-कुम्भ कहा है, साक्षात् रसकूप कहा है। यही है परमार्थ साधनाका अन्तिम लक्ष्य और यही है बन्धन-मुक्ति । तत्त्वालोकके इस जगत्में जहाँ तत्त्व ही तत्त्वमें वर्तन करते प्रतीत होते हैं, उसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं, जहाँ परमाणुओं तथा चेतनाओंके संयोग वियोग के अतिरिक्त अन्य कुछ दिखाई नहीं देता, वहाँ क्या इष्ट और क्या अनिष्ट ? जहाँ क्रिया तथा प्रतिक्रियाके अतिरिक्त अन्य कुछ दिखाई नहीं देता वहाँ क्या कर्तव्य और क्या अकर्तव्य । ये सब द्वन्द्व वहाँ उदित होते हैं जहाँ समग्र दिखाई न देकर क्षण-क्षणमें बदलने वाले नामोंकी अथवा रूपोंकी सत्ता प्रतीत होती है। ऐसी प्रतीति मोह है। इस मोहका लोप हो जानेपर सब समान हैं। न कुछ छोटा है न बड़ा, न इष्ट न अनिष्ट, न कर्त्तव्य न अकर्तव्य । इसलिये यह भाव समता कहलाता है। वैकल्पिक क्षोभ या भाग-दौड़ शान्त हो जानेके कारण यही शमता है। शमता ही शान्ति.है, विश्रान्ति है, प्रशान्त रस है, अमृतरस है, निराकुल सुख है, आनन्दानुभूति है । ३. समन्वय भले ही व्यवहार भूमिपर विधि-निषेधमें, ग्राह्य-त्याज्य में, कर्तव्य-अकर्तव्यमें, तथा पुण्य-पापमें अन्तर रहा आवे परन्तु विकल्पमुक्तिका अधिकार प्रस्तुत होनेपर उनमें कुछ भी अन्तर नहीं है। दोनों ही विकल्प हैं-विधि भी और निषेध भी। दोनों ही के द्वारा चित्त विकल्प-जालमें उलझता है। अन्तर केवल अहंकारके रूपमें है। विधि ग्रहणके पक्षमें 'मैंने यह काम किया', 'मैं अमुक पदार्थका प्रयोग करता हूँ' ऐसा अहंकार रहता है। निषेध तथा त्यागके पक्ष में 'मैं ऐसा काम नहीं करता', 'मैंने इस वस्तुका त्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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