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________________ १२६ २- कर्म खण्ड व्यवस्थाका साक्षात् करके कर्मोंसे विरत नहीं हो जाता। यही संक्षेपमें कर्म-सिद्धान्तका सकल सार है । यद्यपि 'कर्म' वास्तव में चेतन प्रवृत्तिका नाम है, जिसका कथन विस्तार के साथ पहले किया जा चुका है, तदपि उसका कार्य तथा कारण होनेसे कार्मण शरीर भी उपचारसे कर्म कहा जाता है । विशेषता इतनी है कि चेतन प्रवृत्ति की भांति यह भावात्मक न होकर परमाणुओं से निर्मित होनेके कारण द्रव्यात्मक है । इसीलिये इसका 'द्रव्यकर्म' नाम सार्थक है । नोकर्म जिस प्रकार कारणमें कार्यका अथवा कार्यमें कारणका उपचार करके कार्मण शरीरको 'द्रव्यकर्म' कहा गया है, उसी प्रकार बाहरके इस स्थूल औदारिक शरीरको भी हम 'कर्म' कह सकते हैं । यद्यपि सकल प्रवृत्तियों का प्रधान कारण होनेसे अथवा ज्ञानेन्द्रियों आदि सकल कारणों में अनुगत होनेसे यह कर्म है, तदपि कार्मण शरीरकी भांति यह कर्मोंके संस्कारोंको ग्रहण करनेमें समर्थ नहीं है । इसलिये इसे साक्षात् कर्म न कहकर नोकर्म अथवा किंचित् कर्म कहा गया है । f. यद्यपि दारिक शरीर कहने से केवल चेतन प्रवृत्ति के कारणभूत इस स्थूल शरीरका ग्रहण होता है, तदपि तात्त्विक दृष्टिसे देखनेपर जगत् में स्थूल अथवा सूक्ष्म जो कुछ भी दृष्ट है वह सब इसमें गर्भित है क्योंकि जितने कुछ भी दृष्ट पदार्थ हैं वे सब या तो आज किसीके शरीर हैं या पहले किसीके शरीर रह चुके हैं । जीवात्माके द्वारा त्यक्त हो जानेसे भले ही वे सब आज भौतिक अथवा जड़ पदार्थोंके रूपमें ग्रहण किये जाते हों, परन्तु उनका पूर्व इतिहास खोजनेपर पता चलता है कि ये सब पहले किसी न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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