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________________ ૨૦૪ २- कम खण्ड विषयोंसे प्रतिबिम्बित हुई प्रतीत होती है, अथवा अन्तष्करणके माध्यम से जब वह अपनेको अहं और इदं के रूपमें द्विधा विभक्त करती हुई प्रतीत होती है, तब वह ज्ञान कहलाती है । दोनों ही दशाओं में वह विषयाकार हो जाती है । अन्तर केवल इतना है कि पहलीका विषय बाहरमें है और दूसरीका विषय भीतरमें अर्थात् चित्तके अक्षय कोष में । बाह्य विषयसे हो या आभ्यन्तर विषयसे, चेतनाका विषयाकार हो जाना ही 'ज्ञान' का लक्षण है । दूसरी ओर चेतना जब एक इन्द्रियका अवलम्बन छोड़कर दूसरी इन्द्रिय का अवलम्बन लेनेके लिये अपना उपयोग बदलती है तब एक क्षणके लिये वह निर्विषय हो जाती है। पहली इन्द्रियका विषय छूट गया है और दूसरीका अभी पकड़ा नहीं है । इस मध्यवर्ती क्षणमें वह निर्विषय है । इसी प्रकार ध्यान समाधिकी साधनाके द्वारा भी चेतनको निर्विषय किया जा सकता है । किसी भी प्रकार क्यों न हो चेतना जिस समय निर्विषय होती है उस समय हम उसके उपयोगको 'दर्शन' नाम देते हैं । भोक्तृत्व पक्ष में क्योंकि चेतना गृहीत विषयके साथ तन्मय हो जाती है, अहम् इदं के भेदकी प्रतीति उस समय होती नहीं है, केवल रसानुभूति होती है, इसलिये दर्शनोपयोग ही इस पक्ष में प्रधान है । बाह्य विषयोंका भोग वास्तवमें उदाहरण है। यहां भले ही स्थूल रूपसे अहम् इदं की प्रतीति न होती हो तदपि किसी न किसी रूप में वह होती अवश्य है । इसलिये बाह्य विषयों का भोक्तृत्व ज्ञानोपयोग में गर्भित है, दर्शनोपयोग में नहीं । दर्शनोपयोग इसकी अपेक्षा बहुत सूक्ष्म है । उसमें न तो किसी बाह्य विषय का आकार प्रतिबिम्बित होता है, न किसी आभ्यन्तर विषय का और न ही किसी कल्पनाका । निर्विषय तथा शून्य चिज्ज्योति ही उस समय प्रतीति का विषय बनती है । विषय बनती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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