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________________ २-कर्म खण्ड सिद्धि होती है, इसलिये ये इन्द्रके लिंग हैं। लिंगपर से लिंगीको जानना अनुमान ज्ञानका लक्षण है, जिसका उल्लेख न्याय-शास्त्रमें उपलब्ध होता है। इन्द्र अर्थात् आत्माके लिंग होनेसे शास्त्रमें इन करणोंको इन्द्रिय कहा गया है । इसलिये ज्ञानकरणको हम ज्ञानेन्द्रिय कह सकते हैं और कर्मकरणको कर्मेन्द्रिय । यद्यपि शरीरके अंग होनेके कारण कर्मेन्द्रियोंका पृथक् उल्लेख शास्त्रोंमें नहीं है तदपि प्रकरणवशात् यहां उनका पृथक्से उल्लेख करना न्याय-विरूद्ध नहीं हैं। ३. भोगकरण . ये दसों इन्द्रियां जाने गये, अथवा किये गए अपने-अपने प्रतिनियत विषयको अथवा क्रियाको जानने तथा करनेके साथ-साथ उनके प्रति तन्मय होकर रसास्वादन भी करती प्रतीत होती हैं। नेत्र अपने प्रति उपस्थित हुये रूपको जाननेके साथ-साथ उसके प्रति तन्मय होकर निहारती प्रतीत होती हैं, हाथ किसी पदार्थको पकड़ने के साथ-साथ उसके प्रति तन्मय होकर उसकी कोमलता कठोरता आदिका स्पर्श करता प्रतीत होता है। परन्तु सूक्ष्म दृष्टिसे देखनेपर भोगनेका कार्य बहिर्करण रूप दस इन्द्रियोंका नहीं है, बल्कि अन्तष्करणका है। ज्ञानेन्द्रियोंमें रसना घ्राण तथा स्पर्शन और कर्मेन्द्रियोंमें उपस्थ ये चार इन्द्रियां यद्यपि व्यवहार भूमिपर भोगेन्द्रियां मानी गयी हैं, परन्तु सूक्ष्म दृष्टिसे देखनेपर ये चारों तथा इनके साथ अन्य छ: भी इन्द्रियां वास्तवमें ज्ञातृत्व तथा कर्तृत्वके प्रति ही करण हैं, भोक्तत्वके प्रति नहीं। ये यद्यपि भोगके साधन अवश्य हैं परन्तु इनकी सहायतासे भोगनेवाला अन्तष्करण ही है । ४. अन्तष्करण नेत्र आदिक इन्द्रियोंकी भांति बाहरमें प्रत्यक्ष न होनेके कारण अन्तष्करणको शास्त्रोंमें अनिन्द्रिय अथवा ईषत्-इन्द्रिय कहा गया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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