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________________ १८- कर्म-करण ९५ ज्ञानकरण कहते हैं और कर्तृत्व के साधन को कर्मकरण । भोक्तृत्व का साधन अन्तष्करण है, जिसका उल्लेख आगे किया जायेगा । २. ज्ञानकरण तथा कर्मकरण ज्ञानकरण पांच प्रसिद्ध हैं - त्वक्, जिह्वा, घ्राण, नेत्र तथा श्रोत्र । छूकर जानना, चखकर जानना, सूंघकर जनना, देखकर जानना और सुनकर जानना, ये पांच इनके प्रतिनियम विषय हैं । क्योंकि इनके द्वारा जाननेके ही काम की सिद्धि होती है, हलन डुलन रूप से कुछ क्रिया करने की नहीं, इसलिये इन्हें ज्ञानकरण कहते हैं । ज्ञान-करण की भांति कर्म-करण भी पांच हैं-हाथ, पांव, जिह्वा, गुदा और उपस्थ । हाथ के द्वारा हम लेने-देने का, उठानेघरने का तथा बनाने - बिगाड़ने आदि का काम करते हैं और पांव के द्वारा चलने-फिरने, उछलने-कूदने तथा भागने-दोड़ने का । जिह्वा के दो काम हैं चखकर जानना और बोलना । चखकर जानने वाली जिह्वा को शास्त्रों में रसना कहा गया है, जिसका ग्रहण ज्ञानकरण के अन्तर्गत किया जा चुका है। बोलने का काम करते समय जिह्वा को हम वागेन्द्रिय कह सकते हैं । कर्म-करण में जिह्वा के इसी पक्ष का ग्रहण होता है चखने वाले पक्ष का नहीं । गुदा से हम मल-त्याग का काम करते हैं । उपस्थ गुह्येन्द्रिय को कहते हैं | इसके दो काम हैं - मूत्र का त्याग करना और सांसारिक विषय भोग करना। क्योंकि इन पांचों के द्वारा किसी न किसी रूप में हलन डुलन रूप क्रिया कि सिद्धि होती है, कुछ जानने की नहीं, इसलिये इन्हें कर्मकरण कहते हैं । 'इन्द्र' शब्द आत्मा के अर्थमें प्रयुक्त किया जाता है । इन करणोंके द्वारा क्योंकि शरीरमें स्थित आत्मा अथवा चेतना-शक्तिकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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