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________________ जैन धर्म और जीवन-मूल्य स्वयं सत्य की पूर्णता तक पहले पहुंचे तब उन्होंने समाज को उद्बोधित किया। आज के व्यक्तिवाद में व्यक्ति भीड़ से कटकर चलना चाहता है। अपनी उपलब्धि में वह स्वयं को ही पर्याप्त मानता है । जैन धर्म की साधना, तपश्चरण की भी यही प्रक्रिया है-व्यक्तित्व के विकास के बाद सामाजिक उत्तरदायित्वों को निबाहना । सामाजिकता का बोध : जैन धर्म सम्यग्दर्शन के माठ अंगों का विवेचन है। गहराई से देखें तो उनमें से प्रारम्भिक चार अंग व्यक्ति विकास के लिए हैं और अंतिम चार सामाजिक दायित्वों से जुड़े हैं। जो व्यक्ति निर्भयो (निशंकित), पूर्ण सन्तुष्ट (नि:कांक्षित), देहगत बासनामों से परे (निर्विचिकित्सक) एव विवेक से जागृत (अमूढ़ष्टि) होगा वही स्वयं के गुणों का विकास कर सकेगा (उपवृहण), पथभ्रष्टों को रास्ता बता सकेगा (स्थिरीकरण), सहधर्मियों के प्रति सौजन्य-वात्सल्य रख सकेगा तथा जो कुछ उसने अजित किया है, जो शाश्वत और कल्याणकारी है, उसका वह जगत् में प्रचार कर सकेगा। इस प्रकार जैन धर्म अपने इतिहास के प्रारम्भ से ही उन तथ्यों और मूल्यों का प्रतिष्ठापक रहा है, जो प्रत्येक युग के बदलते सन्दर्भो में सार्थक हों तथा जिनकी उपयोगिता व्यक्ति और समाज दोनों के उत्थान के लिए हो। विश्व की वर्तमान समस्याओं के समाधान हेतु जैन धर्म के महापुरुषों की वाणी की महत्त्वपूर्ण हो सकती है, बशर्ते उसे सही अर्थों में समझा जाय, स्वीकार जाय । 100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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