SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म बदलते सन्दर्भो में 83 स्वयं अपने स्वरूप में रहे और दूसरों को उनके स्वरूप में रहने दे। यही सच्चा लोकतंत्र है । एक दूसरे के स्वरूपों में जहाँ हस्तक्षेप हुआ, वहीं बलात्कार प्रारम्भ हो जाता है, जिससे दुःख के सिवाय और कुछ नहीं मिलता। वस्तु और चेतन की इसी स्वतंत्र सत्ता के कारण जैन धर्म किसी ऐसे नियन्ता को अस्वीकार करता है, जो व्यक्ति के सुख-दुःख का विधाता हो। उसकी दृष्टि में जड़-चेतन के स्वाभाविक नियम (गुण) सर्वोपरि हैं । वे स्वयं अपना भविष्य निर्मित करेंगे । पुरुषार्थी बनेंगे । युवा शक्ति की स्वतंत्रता के लिए छटपटाहट इसी सत्य का प्रतिफलन है। इसीलिए आज के विश्व में नियम स्वीकृत होते जा रहे हैं, नियन्ता तिरोहित होता जा रहा है । यही शुद्ध वैज्ञानिकता है । दायरों से मुक्त-उन्मुक्त : ___वस्तु एवं चेतन के स्वभाव को स्वतंत्र स्वीकारने के कारण जैन धर्म ने चेतन सत्ताओं के क्रम-भेद को स्वीकार नहीं किया। शुद्ध चैतन्य गुण समान होने से उसकी दृष्टि में सभी व्यक्ति समान हैं। ऊँच-नीच, जाति, धर्म आदि के माधार पर व्यक्तियों का विभाजन जैन धर्म को स्वीकार नहीं है। इसीलिए उसमें वर्गविहीन समाज की बात कही गई है। प्रतिष्ठानों को अस्वीकृत कर जैन तीर्थंकर जन-सामान्य में आकर मिल गये थे । यद्यपि उनकी इस बात को जैन धर्म को मानने वाले लोग अधिक दिनों तक नहीं निभा पाये । भारतीय समाज के ढांचे से प्रभावित हो जैन धर्म वर्गविशेष का होकर रह गया था, किन्तु प्राधुनिक युग के बदलते सन्दर्भ जैन धर्म को क्रमशः आत्मसात् करते जा रहे हैं। वह दायरों से मुक्त हो रहा है। जैन धर्म अब उनका नहीं रहेगा जो परम्परा से उसे ढो रहे हैं । वह उनका होगा, जो वर्तमान में उसे जी रहे हैं, चाहे वे किसी जाति, वर्ग या देश के व्यक्ति हों। नारो स्वातंत्र्य : वर्तमान युग में दो बातों का और जोर है-नारी स्वातंत्र्य और व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा । नारी स्वातंत्र्य के जितने प्रयत्न इस युग में हुए हैं संभवतः उससे भी अधिक पुरजोर शब्दों में नारी स्वातंत्र्य की बात महावीर ने अपने युग में कही थी। धर्म के क्षेत्र में नारी को प्राचार्य पद की प्रतिष्ठा देने वाले वे पहले चितक थे । जिस प्रकार पुरुष का चैतन्य अपने भविष्य का निर्माण करने की शक्ति रखता है, उसी प्रकार नारी की आत्मा भी। अतः अाज समान अधिकारों के लिए संघर्ष करती हुई नारी अपनी चेतनता की स्वतन्त्रता को प्रामाणिक कर रही है। जैनधर्म भी चेतना के विकास के मार्ग में नारी को सक्षम मानता है। संस्कार-निर्माण में उसकी अहम भूमिका स्वीकार करता है। व्यक्तित्व का विकास : जैन धर्म में व्यक्तित्व का महत्त्व प्रारम्भ से ही स्वीकृत है। व्यक्ति जब तक अपना विकास नहीं करेगा वह समाज को कुछ नहीं दे सकता । जैनधर्म के तीर्थंकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy