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________________ कर्म एवं पुरुषार्थ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी यही कहा है कि जीव और कर्म पुद्गल एक-दूसरे में मिले हुए हैं । समय आने पर पृथक भी हो सकते हैं । किन्तु जब तक वे मिले हुए हैं, कर्म सुख-दुख देता है और जीव को वह भोगना पड़ता है। इस तरह यह निश्चित होता चला गया कि कर्म बलवान हैं । व्यक्ति को कर्मों के अनुसार ही चलना पड़ता है। श्रमण-परम्परा में व्यक्ति को ईश्वर के हस्तक्षेप व अनुकम्पा आदि से जहाँ बचाया गया वहाँ उसे कर्मों के हाथ में सौंप दिया गया। कर्मों की भवितव्यता आदि के इसी सामर्थ्य के कारण होनहार, भाग्य, नियति आदि कर्मवाद के पर्यायवाची बन गए। इसी बात को लेकर भगवान बुद्ध एवं महावीर के साथ उस समय के कई दार्शनिकों का मतभेद भी हुआ। उनके बीच हुए प्रश्नोत्तरों का परिणाम यह हुआ कि श्रमण परम्परा में कर्मसिद्धान्त का सूक्ष्मता से विवेचन किया गया। होनहार अथवा नियति आदि से कर्मवाद की भिन्नता स्पष्ट की गयी। कर्म और पुरुषार्थ के अलग-अलग महत्व को समझा गया। व्यक्ति स्वातन्त्र्य एवं कर्म-विपाक के सम्बन्ध को अनेक उदाहरणों द्वारा जैन आगमों एवं परवर्ती साहित्य में स्पष्ट किया गया है । प्राकृत साहित्य में कर्मों के विवेचन में यह कहा गया है कि कर्मों का विपाक दो तरह मे होता है। कुछ कम अपने निश्चित समय पर व्यक्ति को अपने पाप अच्छा-बुरा फल देते हैं । यह प्रक्रिया उनमें स्वाभाविक होती है । इसमें व्यक्ति का प्रयत्न कुछ नहीं कर सकता। किन्तु कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल समय से पहले एवं मन्दता के साथ व्यक्ति के प्रयत्नों द्वारा भोगा जा सकता है । व्यक्ति का पुरुषार्थ ऐसे कर्मों के फल को बदल सकता है। प्रतः गणधर वाद में यह कहा गया है कि कभी जीव कर्मों के अधीन होता है श्रीर कभी कर्म जीव के अधीन । अतः कर्म और जीव के प्रयत्नों में संघर्ष चलता रहता है । यथा कत्थवि बलियो जीवो, कत्थवि कम्माइ हुति बलियाई। जीवस्य य कम्मस्स य, पुस्खबिरुद्धाई बैराई ।। 2-25 ।। प्राचार्य समन्तभद्र ने भी यही मत प्रकट किया है कि बुद्धिपूर्वक कर्म न करने से जो कुछ प्राप्त होता है वह भाग्य (कम) के अधीन है और व्यक्ति के प्रयत्न से इष्ट-अभिष्ट की प्राप्ति होना पुरुषार्थ के अधीन है। कहीं पर देव प्रधान होता है तो कहीं पुरुषार्थ । प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भी कार्य की उत्पत्ति में पूर्व कर्म आदि के साथ पुरुषार्थ का भी समन्वय आवश्यक माना है। भगवती सूत्र में गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने यह पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि कर्म के स्वाभाविक उदय में नए पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु उदीरणा योग्य कर्म पुदगलों की सामर्थ्य को जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा कम कर सकता है । इन कर्मों की उदीरणा मन, वचन, काय के योग द्वारा होती है। इसी से कर्मों का संवर व निर्जरा होती है जो मुक्ति का मार्ग है। प्रतः कर्मों की रज से आत्मा को निर्मल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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