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________________ 42 जैन धर्म और जीवन-मूल्य विमुख न हो तथा उसमें दान की वृत्ति बनी रहे, इसके लिए उसे चार शिक्षाव्रतों को पालन करने का विधान किया गया ।26 जब जैन गृहस्य इन बारह व्रतों का पालन करने लगता है, तब उसके धार्मिक जीवन की यात्रा आगे बढ़ती है। वह अपनी शक्ति और रुचि के अनुसार साधु-जीवन के संयम-पालन की तरफ कदम बढ़ाता है, इसके लिए उसे क्रमशः ग्यारह वनों का पालन करना पड़ता है। इन्हे 'प्रतिमा' कहा गया है । ग्यारहवीं प्रतिमा (उद्दिष्ट त्याग) की साधना के उपरान्त मुनिधर्म का प्राचार प्रारम्भ हो जाता है । जैन आचार-शास्त्र के अनुसार मुनि-जीवन का आचार प्रायः निवृत्तिपरक है । उसमें सभी क्रियाएँ प्रात्मा के साक्षात्कार में सहायक होती हैं । पांच समितियों, तीन गुप्तियों, छह आवश्यकों आदि की साधना प्रमुख है। बारह प्रकार के तपों की साधना करता हुआ जैन मुनि ध्यान की उत्कृष्ट अवस्था में पहुंचता है । वहाँ वह उस परमज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, जिससे वह परमात्मा की कोटि में पा सके । संक्षेप में, यही जैन प्राचार-संहिता की परिणति है । मुनि-जीवन की इसी कठोर साधना के कारण जैन आचार-संहिता को प्रायः निवृतिमूलक एवं व्यक्तिवादी आचार की संज्ञा कुछ विद्वान् देते हैं । यह किन्तु अाशिक सत्य है। वस्तुतः जैन प्राचार व्यक्ति के गुणात्मक विकास के साथ-साथ पूरी मानव-जाति के उत्थान की भावना अपने में समाये हुए है । प्राणि-मात्र के प्रति जीवन-रक्षा की भावना जैन आचार में निहित है। सम्पूर्ण जैन आचार-संहिता में से निम्नांकित कुछ ऐसे विश्वव्यापी मूल्य हैं, जो मानव-कल्याण के साथ-साथ प्राणिमात्र को जीवन की सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम हैं। जैन प्राचार-सहिता सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सभ्यक चारित्र की साधना द्वारा पालन की जाती है, जिसका परिणाम अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह इन तीन प्रमुख प्रवृत्तियों के रूप में प्राप्त होता है ।27 सम्यग्दर्शन से सही दृष्टि प्राप्त होती है। पदार्थों का वास्तविक रूप ज्ञात होता है। आत्मा और शरीर का सम्बन्धबोध होता है; अतः सम्यग्दर्शन को उपलब्ध व्यक्ति अनासक्त हो जाता है । अनासक्ति से वह अपरिग्रह व्रत के पालन का अधिकारी बनता है। उसे निभंय, अमर और सर्वगुण-सम्पन्न प्रात्मा के लिए फिर वस्तुओं के संग्रह और उनमें मोह की आवश्यकता नहीं रह जाती । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति से व्यक्ति अनाग्रह चित्त वाला हो जाता है । उसमें अनेकान्तवाद फलित हो जाता है। वह प्रत्येक वस्तु के विभिन्न पहलुषों और उससे संबद्ध सम्भावनाओं को महत्त्व देता हुआ वैचारिक दृष्टि से उदारमना हो जाता है । अनासक्त पोर अनाग्रह चित्त वाले व्यक्ति के लिए सभी प्राणियों में समत्वभाव पा जाता है, यही सम्यक चारित्र की उपलब्धि है। समत्व को प्राप्त व्यक्ति से हिंसा होना असंभव होता है। वह अन्तर एवं बाह्य दोनों ओर से शुद्ध विचार वाला व्यक्ति होता है, अतः उसके सभी कार्य तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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