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जैन आचार-संहिता
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की संभावना है। मानवता की सुरक्षा ऐसे उदारवादी दृष्टिकोणों और अनाग्रही वृत्तियों से ही हो सकती है ।
___ जैन आचार-संहिता का मूलाधार सम्यक् चारित्र है। जैन ग्रन्थों में चारित्र का विवेचन गृहस्थों और साधुओं की जीवन-चर्या को ध्यान में रख कर किया गया है। साधू-जीवन के लिए जिस प्राचरण का विधान किया गया है उसका प्रमुख उद्देश्य प्रात्म-साक्षात्कार है, जबकि गृहस्थों के चारित्र-विधान में व्यक्ति एवं समाज के उत्थान की बात भी सम्मिलित है ।24 इस तरह निवृत्ति एवं प्रवृत्ति मार्ग दोनों का समन्वय जैन प्राचार-संहिता में हुआ है। अात्महित और परहित का सामंजस्य सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की पृष्ठभूमि में सम्यकचारित्र में सहज उपस्थित हो जाता है । निज का स्वार्थ-साधन, दूसरों के प्रति द्वेष और ईर्ष्याभाव तथा हिसक वत्ति का त्याग व्यक्ति सम्यग्दर्शन को उपलब्ध होते ही कर देता है। वस्तुत्रों का सही ज्ञान होते ही वह प्रात्मकल्याण तथा परहित की बात सोचने लगता है। उसमें आत्मा के गुणों को जगाने का पुरुषार्थ तथा जगत् के जीवों के प्रति करुणा और मैत्री का भाव जागृत हो जाता है । अनेकान्तवाद की वैचारिक उदारता से परिचित होते ही व्यक्ति अनाग्रहपूर्ण जीवन जीने लगता है। अतः उसके कदम सम्यक चारित्र की भूमि को स्पर्श करने लगते हैं । यहाँ प्राकर साधक अहिंसा की पूर्ण साधना का प्रयत्न करता है । वस्तुतः जैन प्राचार-संहिता के सभी व्रत-नियम अहिंसा की साधना के लिए ही हैं । अहिंसा के बिना जैन आचार शून्य है । मानवता-का-कल्याण अहिंसा में ही सन्निहित है। इसीलिए जैन आचार में इसका सूक्ष्म और मौलिक विवेचन मिलता है। प्राचार-संहिता : गृहस्थ और मनि :
जैन आचार-संहिता में गृहस्थ धर्म के अन्तर्गत प्रमुख रूप से पांच व्रतों, तीन गणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का विवेचन है । 25 अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह इन पाँच व्रतों का पालन गृहस्थ अपनी सामाजिक सीमा में रहते हुए करता है, अतः प्राशिक रूप से पालन होने के कारण इन्हें 'अणुव्रत' कहा गया है, जबकि मुनि-जीवन में इनका पूर्णरूप से पालन करने का विधान होने से ये 'महाव्रत' कहलाते हैं। इन पांच व्रतों का कार्यक्षेत्र व्यक्ति की अपेक्षा समाज में अधिक है, अतः जैन प्राचार ने व्यक्ति में सामाजिक गुणों के विकास की ओर ध्यान दिया है। मनुष्य में 'असत्' वृत्तियों के प्रति अरुचि और सदाचार के प्रति रुचि जागृत हो इसके लिए उसे जीव-मात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के प्रति प्रमोद, दीन-दुखियों के प्रति करुणामाव तथा विरोधियों के प्रति पक्षपातरहित माध्यस्थ्य भाव रखने की प्रेरणा जैन प्राचार्यों ने दी है । सदाचारी गृहस्थ का सामाजिक जीवन मर्यादित हो एवं उसमें संचय की वृत्ति न बढ़े इसके लिए उसे दिग्वत, देशव्रत, एवं अनर्थदण्डव्रत इन गुणों को पालन करने के लिए कहा गया है। वह दैनिक जीवन में धार्मिक आचरण से
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