SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर के चिन्तन-कण कैसे पैदा हो गये, जबकि वे पदार्थ के अधिकांश अंशों को नहीं जानते । पदार्थ के अनन्त गुण, अनन्त पर्यायें हैं । फिर कैसे हम किसी एक पक्ष के आग्रही बनकर दंभी बन जायें ज्ञानी होने के ? अतः उन्होंने अनेकान्तवाद का प्रतिपादन स्याद्वाद के माध्यम से किया । अनेकान्तवाद या स्याद्वाद की जितनी दर्शन व चिन्तन के क्षेत्र में श्रावश्यकता है, उससे कहीं अधिक व्यावहारिक दैनिक जीवन में महावीर द्वारा प्रणीत अनेकान्तवाद की यही निष्पत्ति है कि हम अपने-आपको इतना तैयार करें कि दूसरों को सुन सकें कहने की क्षमता से बहुत बड़ी है-दूसरे को सुन पाने की क्षमता | हमसे व्यक्ति सत्य के उन अंशों को भी जान लेता है जहाँ उसकी दृष्टि नहीं पहुँची थी । महावीर का यह समन्वय का चिन्तन सभी कालों और परिस्थितियों में अनुकरणीय है । वास्तव में महावीर बड़े व्यवस्थित चिन्तक थे । आत्मजागरण (सम्यग्दर्शन) के बद जगत्-दर्शन (सम्यग्ज्ञान) हो जाने पर उन्होंने इससे प्रगट होने वाले प्राचरण (सम्यक् चारित्र) की बात कही है । किसी भी व्यक्ति का आचरण समाज से पृथक् नहीं होता । अतः महावीर ने जिस पद्धति का निर्माण किया है, उससे प्रगट हुआ आचरण कभी किसी को हानिकारक हो नही सकता । इसीलिए उन्होंने ज्ञानी साधक के आचरण को फूल की सुवास की भांति कहा है । 21 महावीर के जीवन-दर्शन की निष्पत्ति अहिंसा है। अहिंसा का उपदेश भारतीय संस्कृति में नया नहीं है । महावीर के पूर्व के तीर्थकरों ने भी करुणा, वात्सल्य आदि गुणों के विकास द्वारा जीवो के प्रारणघात रोकने की बात कही थी । महात्मा बुद्ध ने भी अहिमा की सूक्ष्म व्याख्या की थी । किन्तु महावीर ने अहिंसा को जितनी गहराई से देखा और अनुभव किया है, वैसा उदाहरण दूसरा नहीं है । प्राणीमात्र पर अपना अधिकार रखना, उसे शासित करना, उत्तेजित कर देना तथा उसकी भावना को ठेस पहुँचना प्रादि क्रियाएँ महावीर की दृष्टि से हिसा थीं, अतः उन्होंने इन सब वृत्तियों के त्याग को ही अहिंसा कहा है । यथा— 'सव्वे पाणा... "ग हंतव्वा, रण प्रज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेन्वा ण उद्दवेयव्वा ' - आचारांग, १.४.१ यह सब तभी होगा जब मानव 'श्रात्मवत्सर्वभूतेषु' के प्रद्घोष को पहचानेगा । महावीर ने अहिंसा की सबसे छोटी परिभाषा दी है - समभाव रखना । श्रात्मज्ञान प्रहिंसा है तथा आत्म-ज्ञान हिंसा । इस सूत्र का विस्तार ही जैनागमों में हुआ है | अहिंसा के अतिरिक्त अन्य व्रत व सिद्धान्त उसकी सुरक्षा के लिये हैं । व्यक्ति को निर्भय और संविभागी बनाने के लिए। अपरिग्रह का विवेचन व्यक्ति श्रौर समाज में सामन्जस्य स्थापित करने के लिए है । महावीर ने अन्य तप आदि साधनाओं का निरूपण भी किया है, जो व्यक्ति के प्राध्यात्मिक उत्कर्ष के साथ-साथ उससे प्रगट होने वाले आचरण को भी विशुद्ध करते है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy