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जैन संस्कृति का वैशिष्टय
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जीवन का लक्ष्य निश्चित होता है, ऐसे वीतरागी रागद्वेष के विजेता ही जिन कहलाते हैं । उनके उपासक ही जैन । उनके द्वारा प्रणीत प्राचार धर्म जैन धर्म । उनकी तात्विक विचारधारा ही जैन दर्शन और इन सबका समिश्रण ही जैन संस्कृति है ।
यह समता जैन धर्म के प्रत्येक सिद्धांत से उद्घोषित होती है। अहिंसा समत्व की पहली और सीधी सीढ़ी है। समस्त प्राणियों में एकता प्रौर समता का विस्तार ही अहिंसा है । विषमता को तिरोहित करना ही पर्याप्त है, समता तो है ही। असत्य, क्रोध, भय, लोभ व हास्यात्मक व्यंग्य के व्यवहार से विषमता जन्मती है । चोरी कर अपने को समृद्ध और दूसरे को क्षीण बनाना विषमता है । राग-भाव के असन्तुलन का परिणाम ही विषय-लोलुपता है। तथा परिग्रह तो स्पष्ट रूप से विषमता का प्रतीक है । इन समस्त विषमताओं के विनाश के लिए ही अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह द्वारा समता की साधना पूर्ण समदर्शी पद तक पहुंच जाती है, वही जीवन का परम सत्य है, मोक्ष है । जैनाचार का नैतिक प्रादर्श
जैन संस्कृति के नैतिक अादर्श जैन धर्म की विशुद्ध प्राचार-प्रक्रिया पर आधारित हैं। जैन धर्म में जितना विचारपक्ष को पुष्ट किया गया है उतना ही प्राचार पक्ष को । प्राचार की शुद्धि के लिए साधु एवं गृहस्थ दोनों के लिए कुछ नित्य कृत्यों का विधान है । सामायिक द्वारा व्यक्ति समभाव की साधना करता है। तीर्थंकरों के स्तवन से अपने भावों को पवित्र रखने की प्रेरणा लेता है। पूज्यनीय परुषों की वन्दना कर विनय अजित करता है। प्रतिक्रमण के द्वारा प्रमादवश हई भूलों का पश्चाताप एवं प्रमार्जन करता है। कायोत्सर्ग द्वारा शरीर के ममत्व को घटाने का अभ्यास करता हुआ प्रत्यख्यान द्वारा अपनी समस्त इच्छाओं के निरोध का प्रयत्न करता है । इस तरह का दैनिक अभ्यास एक दिन साधक को साधना की उस भूमि पर ला खड़ा करता है जहाँ नैतिकता के सारे आदर्श पूर्ण हो जाते हैं। और वह मुक्ति प्राप्ति के प्रयत्न में रत हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति जैन संस्कृति की इस आचार प्रक्रिया को जिस दिन अपना लेगा सारी अनैतिकता उसी क्षण तिरोहित हो जायेगी। कर्मवाद : व्यक्ति-स्वातन्त्र्य
जैनाचार की मूल भित्ति कर्मवाद है। इसी पर जैन संस्कृति का अहिंसावाद, अपरिग्रह एवं अनीश्वरवाद प्रतिष्ठित है । मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों और कषायों के द्वारा प्रात्मा में मलीनता का पाना ही कर्मबन्धन है । अहिंसा आदि व्रतों के द्वारा संयम की साधना कर्मबधन को रोक देती है। और मन, वचन, काय की अखण्ड एकाग्रता वासनामों को क्षीण कर तप को जन्म देती है, जिससे पूर्व संचित कर्म कटने लग जाते हैं। जिस समय अन्तः-बाह्य तपों के द्वारा अज्ञान के सारे प्रावरण ढह
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