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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
उदार वैचारिक दृष्टि को समझने के लिए अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को ही समझ लेना पर्याप्त है।
परस्पर विरोधी विचारों के प्रवाह होने का प्राधार वस्तु का अनेक धर्मा होना है । प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव में, गुणों में और सम्पन्नता में अनन्तता से युक्त है । अत: पृथक-पथक दृष्टिकोण से वस्तुओं को समझना और विभिन्न दृष्टिकोणों को समुचित रूप से समन्वित करने का प्रयास ही अनेकान्तवाद है । तथा अनेकान्तवाद सिद्धान्त को व्यक्त करने वाली सापेक्ष भाषा-पद्धति ही स्याद्वाद है। इसका अर्थ है, वस्तु के जिस पक्ष को लेकर हम बोल रहे हैं केवल वही सत्य नहीं है, उसका दूसरा अंश भी सत्य हो सकता है। अतः उसके जानने वाले को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है।
इस प्रकार जैन दर्शन अनेकान्त के रूप में तत्त्वज्ञान की यथार्थ दृष्टि प्रदान कर एक अोर सत्य का दिग्दर्शन करता है तो दूसरी ओर स्याद्वाद के द्वारा दार्शनिक जगत् में समन्वय के लिए सुन्दर आधार तयार करता है । यदि तत्त्व की विचारणा और सत्य की गवेषणा में सर्वत्र अनेकान्त दृष्टि अपनाई जाय तो धार्मिक संघर्ष, दार्शनिक विवाद, पंथों की नाकाबदी और सम्प्रदायों का कलह स्वयमेव तिरोहित हो जाय । इससे मानव-संस्कृति की आत्मा को भी आघात नहीं पहुंचता तथा समत्व दर्शन की प्रेरणा को बल मिलता है । मनुष्य की दृष्टि उदार, विशाल और सत्योन्मुखी बनती है। समता का उदघोष
जैन धर्म द्वारा प्रणीत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र के मूल मंत्र में प्राणी मात्र का कल्याण निहित है। और विरोध में सामन्जस्य, कलह में शान्ति व जीव मात्र के प्रति प्रात्मीयता का भाव उत्पन्न करना ही इस त्रिरत्न की साधना है। इसकी प्रानुषांगिक साधनाएं हैं - अहिंमा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य प्रौर अपरिग्रह रूप नियम तथा क्षमा. मृदुता आदि गुण । नाना प्रकार के व्रतों और उपवासों, भावनाओं, तपस्यानों और योगों का उद्देश्य विश्वजनीन यात्मवृत्ति प्राप्त करना है। समत्व का बोध और अभ्यास करना ही अनेकान्त व स्याद्वाद जैसे सिद्धान्तों का साध्य है।
समता जैन संस्कृति में कितनी व्यापक एवं अभिन्न है, यह दृष्टव्य है . जैन धर्म का मूल नाम श्रमण धर्म (समण धम्म) है। भगवान् महावीर को “समणभगवं महावीरं" आदि सम्बोधन दिये गये हैं। 'श्रमण' शब्द का अर्थ ही हैउपशमन करना, समता का व्यवहार करने वाला। दोनों अर्थ सार्थक हैं । समत्व का उपासक व्यक्ति शांत होगा ही। और कषायों के उपशमन बिना कोई व्यक्ति समत्व या समता पा भी नहीं सकता । इस तरह परम-समत्व की वृत्ति की साधना ही जिनके
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