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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
है। संसार को प्रसार कहने का अर्थ यह नहीं है कि जगत् की वस्तुएं एकदम अनुपयोगी हैं, माता-पिता आदि के सम्बन्ध केवल दुखदायी हैं तथा समृद्धि नरकदायिनी है. अपितु इस अस्थिरता के स्वर का तात्पर्य यह है कि संसार की ये समस्त परिस्थितियाँ इतनी निर्बल हैं कि व्यक्ति के उत्थान में इनसे कोई रुकावट पड़ने वाली नहीं है । व्यक्ति का पुरुषार्थ जगत् के वातावरण से अधिक शक्तिशाली है । अतः वह जीवनोत्थान के मार्ग में निशंक होकर आगे बढ़ सकता है। यदि नहीं बढ़ता तो इसके लिए वातावरण या जगत् का कोई दोष नहीं है । घर-गृहस्थी के आकर्षण का वह बहाना नहीं कर सकता । और, जब व्यक्ति किसी भी अवनति के लिए केवल अपने को कारण मानने लगता है, उसे उन्नति के मार्ग पर जाने में देर नहीं लगती। यह इन साहित्यकारों का प्रतिपाद्य था।
प्राकृत-अपभ्र श साहित्य मे इन प्रमुख जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए प्रमुख रूप से दो शैलियाँ अपनाई गई हैं- (1) विभिन्न प्रतीकों का प्रयोग और (2) हास्य-व्यंग शैली का प्रतिपादन । प्रतीकों में समुद्र यात्रा और जलयान-भग्न के प्रतीक आठवीं सदी के प्राकृत-साहित्य में सर्वाधिक प्रयुक्त हुए हैं। कुवलयमाला में कुडंगद्धीप की यात्रा के प्रसंग में जलयान-भग्न की घटना द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । समुद्र-यात्रा संसार की यात्रा है। जलयान का मग्न होना जीवन मृत्यु की शृखला है और किसी फलक आदि के द्वारा तट की प्राप्ति धर्मोपदेश द्वारा मुक्ति की प्रोर गमन का प्रतीक हैं। इसी प्रकार घुण्डरीक का दृष्टान्त मधु बिन्दु, सर्षपदाना, कड़वी तुम्बी का तीर्थस्थान, आदि अनेक प्रतीकों की योजना इन साहित्यकारों ने की है।
हास्य व्यंग शैली का प्रतिपादन यद्यपि प्रत्येक युग के प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य में यत्र-तत्र उपलब्ध है. किन्तु पाठवीं शताब्दी में इस साहित्य का यह प्रधान स्वर हो गया था। इसका पूर्ण प्रतिनिधित्व हुअा है प्राचार्य हरिभद्र के 'घूर्ताख्यान' नामक प्राकृत ग्रन्थ में । इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय, त्रिदेव के स्वरूप की मिथ्या मान्यताएँ, अन्धविश्वास, अस्वाभाविक मान्यताएं, जातिवाद, अमानवीय प्रसंगों आदि का व्यंग के माध्यम से खण्डन किया गया है । ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसके हास्य और व्यंग प्रहार ध्वंसात्मक न होकर निर्माणात्मक हैं । वे स्वस्थ सदाचारपूर्ण जीवन का निरूपण करते हैं ।
इस प्रकार प्राकृत-अपभ्रश साहित्य में उन जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है जो व्यक्ति के प्रात्मिक विकास में सहायक हैं तथा जिनसे समाज का नैतिक आधार दृढ होता है । इस साहित्य में मूल्यों में परिवर्तन की ध्वनि भी सुनायी पड़ती है, जिसे साहित्यकारों ने सुन्दर शैली में रूपायित किया है। इस साहित्य की मूल्यों के प्रति यह सजगता वर्तमान हिन्दी-साहित्य तक स्थानांतरित हुई है, यद्यपि उसके स्वरूप और प्रभाव का स्वर अवश्य बदला हुआ है ।
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