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________________ जैन साहित्य में जीवन-मूल्य 127 इस साहित्य का कर्म-सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रधान स्वर है । व्यक्ति जो कुछ अपने मन-वचन-कर्म के सहयोग से करता है उसका अच्छा-बुरा परिणाम उसे अवश्य भोगना पड़ता है । इस भोगने की प्रक्रिया में वह अकेला होता है । अत: यदि वह चाहे तो अपने सद प्रयत्नों द्वारा, इस कम शृखला को ताड़ भी सकता है । इस के लिए उसे किसी ईश्वर आदि को अनुकम्पा की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार प्राकृत अपभ्रश साहित्य में यद्यपि ईश्वरत्व के प्रति आस्था है, किन्तु उसके कृतत्व एव हस्तक्षेप का खण्डन किया गया है । इससे एक ओर ईश्वर की महिमा और गौरव सुरक्षित बना रहा; क्योंकि उसे छोट और बुरे कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं होना पड़ा दूसरी ओर व्यक्ति के प्रात्मविश्वास में वृद्धि हुई । कम-सिद्धान्त के प्रतिपादन के साथ पुनर्जन्म की लम्बी शृखला जुड़ी हुई है। हरिभद्र की समराइच्चक हा में 9 जन्मों तक प्रतिशोध की भावना व्यक्ति को परेशान करती है । जाति-स्मरण कराना इन साहित्यकारों की अपूर्व देन है। पिछले अनेक जन्मों के स्मरण द्वारा वे व्यक्ति को यह समझ देते है कि अशुभ कार्य करना कितना दुखदायी है तथा किसी भी शुभ फल की प्राप्ति इतनी सरल नहीं है कि किसी की मनौती मांगी या आराधना की और सुखी हो गए। इसके लिए कई जन्मों तक साधना करनी होती है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति का अहकार भी तिरोहित होता है, जो सभी बुराइयों की जड़ है । पूर्व जन्मों के इतिहास को देखकर स्पष्ट हो जाता है कि कितनी बार सुन्दर देह प्राप्त की है, कितनी सम्पति अजित को है तथा कितने प्रियजनों का स्नेह प्राप्त किया है, फिर भी सन्तुष्टि नहीं हुई। अतः इस सत्य को अब समझ लेना चाहिए कि देहाभिमान, सत्ताभिमान एवं ममत्व आदि पर गर्व करने से संसारचक्र में भटकना पड़ता है । यह मुक्ति का मार्ग नहीं है । उद्द्योतन सूरि ने कुवलयमालाकहा में क्रोध, मान, माया, लोभ एवं मोह जैसी रागात्मक वृत्तियों के परिशोधन का सुन्दर चित्रण किया है । प्राकृत-अपभ्रश साहित्य में जगत् की नश्वरता का जितना तीव्र स्वर है, उसकी अन्विति उतनी ही प्रभावकारी है। संसार की वस्तुएँ, रागात्मक-सम्बन्ध, सम्पत्ति प्रादि व्यक्ति के उत्थान में सहयोगी नहीं हैं । इस सम्बन्ध में राजा दशरथ की यह उक्ति दृष्टव्य है को हका महि कहो तरगउ दम्वु । सिंहासण छत्तई अथिरु सव्वु ॥ जोव्वरणसरोरु जीविउ घिगत्थु । संसारु प्रसारु अगत्थु प्रत्थु ॥ इत्यादि । -पउम.-22-3 प्राकृत साहित्य में अनेक दृष्टान्तों द्वारा इस दृष्टिकोण को और अधिक स्पष्ट किया गया है । जगत् की नश्वरता का चित्रण एक गहरे अर्थ की अोर सकेत करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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