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________________ कुम्भकालीन मेवाड़ में जैनधर्म 11. गवाधिशीतांशु (1499) मिते विक्रमवत्सरे । चित्रकूट महादुर्गे ग्रन्थोऽयं समापयत ।। 12. 10. श्राचार्य हीरानन्द 17 - महाराणा कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थ कामराजरतिसार में प्राचार्य हीरानन्दसूरि को स्मरण किया गया है । महाराणा ने इन्हें अपना गुरू माना है । वि. सं. 1518 में लिखित इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि महाराणा की सभा में इनका अच्छा सम्मान था । इन्हें 'कविराजा' की उपाधि भी दी गयी थी । हीरानन्द की कलिकालरास ( 1496 सं . ) आदि रचनाएं प्राप्त हैं | अगरचन्द नाहटा के अनुसार ये राजस्थानी के भी अच्छे विद्वान थे । 107 - प्रशस्ति श्लोक 16 ऋषिवर्द्धन18 - वि. सं. 1512 में चित्तौड़ में जयकीर्ति के शिष्य ऋषिवर्द्धन ने नल-दमयन्तीरास नामक ग्रन्थ लिखा था । जिनबद्ध नसू रि49 – ये मेवाड़ के निवासी थे । 'कदूलवाडपुर' में इनका साधना केन्द्र था । इनके बचपन का नाम 'रावण' था । दीक्षा का नाम राज्यवर्द्धन हुआ एवं प्राचार्यपद प्राप्ति के बाद इन्हें जिनवर्द्धनसूरि नाम दिया गया । इनका समय सं. 1436 से सं. 1486 तक माना जाता है । इनके शिष्य विवेकहंस थे । इन्होंने 'जिनवर्द्धनसूरि चतुःपदिका' नामक पुस्तक लिखी है, जिसमें मेवाड़ का सुन्दर वर्णन है । खरतरगच्छ के श्रन्य जैन कवियों का भी मेवाड़ में अच्छा प्रभाव था । 50 इनके अतिरिक्त भी मेवाड़ में कई जैनाचार्य इस युग में साहित्य साधना में रत रहे हैं । विशालरूपगरिण ने वि. सं. 1482 में भक्तामर की अवचूरिण लिखी थी । वि. सं. 1491 में जयशेखरसूरि ने दिलवाड़ा में 'गच्छाचार' नामक ग्रन्थ लिखा था 151 कुछ रचनाएं ऐसी भी प्राप्त हैं, जो इस समय की हैं, किन्तु उनमें रचना स्थल का उल्लेख नहीं है । कई ग्रन्थ ग्रन्थ भण्डारों के सर्वेक्षरण से भी खोजे जा सकते हैं । भट्टारक कवि : महाराणा कुम्भाकालीन मेवाड़ में जैनधर्म के अन्य कवियों में भट्टारक कवियों का प्रमुख स्थान है । इन्होंने मेवाड़ के प्रमुख नगरों को अपनी साहित्यसाधना का केन्द्र बनाया था। डा. विद्याधर जोहरापुरकर ने अपनी पुस्तक भट्टारक सम्प्रदाय में राजस्थान के जैन भट्टारकों का परिचय दिया है । उनमें पद्मनन्दि, सकलकीर्ति, शुभचन्द्र, सोमकीर्ति आदि प्रमुख हैं 52 1. Jain Education International भटारक पद्मनंदि -- इन्होंने चित्तौड़ में जैनधर्म का अच्छा प्रचार किया था । सं. 1450 से 1473 के बीच इन्होंने श्रावकाचार - सारोद्धार, षद्ध मान For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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